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२७. लवालव
लबालव यह जैनागमो का पारिभाषिक शब्द है। 'स्तोक' काल का एक सूक्ष्मतम भाग है, सात स्तोक का एक लव होता है अर्थात् एक मुहूर्त के सत्रहवे अश को लव कहा जाता है। लदो की परम्परा को लवालय कहते हैं। जीवन का कोई भी लव सुनिवृत्ति एव सुप्रवृत्ति के बिना नहीं जाने देना चाहिये। धर्म केवल निवृत्यात्मक ही नही है, प्रवृत्ति को यदि प्रवृति के जल से ही सीचा जाएगा तो वह ठूठ की तरह सूख जाएगी, मुरझा जाएगी। प्रवृत्ति उम समय मदमाते हाथी की तरह पागल हो जाती है जब कि उस पर निवृत्ति का अकुश नही रह जाता।
तीर्थडूर भगवान की प्राज्ञा, गुरु एव शास्त्र की प्राना भी दो प्रकार की होती है-निवृत्ति रूपा और प्रवृत्ति रूपा । जैन धर्म प्रत्येक साधन को सम्यक् भी मानना है और मिथ्या भी। जैसे कि भक्ति-मार्ग जन-जन में प्रसिद्ध है, उसी को ले लीजिए । जैन संस्कृति के अनुसार भक्ति का अर्थ है अपनी आत्मा के प्रति निष्ठा अर्थात् आत्म-तत्त्व के प्रति सर्वतोभावेन समर्पण-प्रात्म-अवस्थिति के लिये समर्पित हो जाना यदि अन्तरात्मा के प्रति हमारी दृढ श्रद्धा एव समर्पण हो जाए तो हमारी सर्वतोमुखी विजय सुनिश्चित
योग एक चिन्तन ]
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