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से ज्ञान स्पष्ट हो जाता है, अत मेरा सीखा हुया ज्ञान भी वाचना देने से स्पष्ट हो जाएगा। कुछ गुरुजन इस लक्ष्य से वाचना देते हैं कि शास्त्र पढाने की परम्परा चलती रहे नही तो शास्त्र का ही व्यवच्छेद हो जाएगा। अध्ययन और अध्यापन की परम्परा अपने गण मे विच्छिन्न न होने देना यह बहुश्रुत का परम कर्त्तव्य है।
शिष्यो का भी यह कर्त्तव्य होता है कि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिये, तत्त्वो पर श्रद्धा करने के लिये, चारित्र एव सयम की विशुद्धि के लिये, हठवाद या एकान्तवाद को छोड़ने और छडाने के लिये, अनेकान्तवाद का प्राथयण लेने के लिये, प्रागमो का अध्ययन करने पर द्रव्य एव पर्यायो का यथातथ्य ज्ञान हो जाएगा इस विचार से श्रुतज्ञान का अभ्यास निरन्तर करते रहना चाहिए ।
२. पच्छना-वाचना ग्रहण करते समय या पहले सीखे हए श्रुतज्ञान में शब्दगत या अर्थगत सन्देह होने पर शका-समाधान के लिये ज्ञानी गुरुजनो से श्रद्धापूर्वक प्रश्न पूछना ही पृच्छना है। प्रश्नोत्तर विधि से ज्ञान बढ़ता है, शकाओं का समाधान करने से एवं पाने से मन समाधिस्थ हो जाता है।
३. परिवर्तना-सूत्र रूप मे और अर्थ रूप मे सीखे हुए ज्ञान की आवृत्ति करते रहना, उसे चितारते रहना परिवर्तना है। परि. वर्तना से श्रुतज्ञान इतना सुदृढ़ हो जाता है कि वह भावी जन्मो मे भी उद्बुद्ध हुए विना नहीं रहता। स्वाध्यायशील साधक का भावी जन्मो मे भी मस्तिष्क स्वच्छ निर्मल एव व्युत्पन्न रहता है।
४. धर्म-कथा-धर्मकथा के अतिरिक्त शेष सब विकथाए है। धर्मकथा सुनाने वाला यदि शरीर-सम्पदा से युक्त हो, उसकी धारणा-शक्ति और स्मरण-शक्ति प्रवल हो, वाणी और स्वभाव मे योग , एक चिन्तन ]
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