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२६. उदय मारणान्तिक
令中全會令公分令499令令令李令令令令令参令夕节 साधक को मारणान्तिक कष्ट आने पर भी समभाव रखना चाहिए । समभाव तभी मन मे , रह सकता है जब कि हम सुखों की तरह दु खो का भी स्वागत करते रहे । दुख और सुख दोनो हमारे अतिथि है । जो जिसका प्रतिथि है, वह उसी के घर मे ही तो जीएगा, वह अन्य किसी के घर में नही जा सकता । एक का स्वागत तो हम सहर्ष करते है और दूसरे का स्वागत विल्कुल ही नही करते । भला इस तरह करने से वह क्या हमारा पीछा छोड देगा ? ज्ञानी लोग सुख का स्वागत चाहे करे या न करे, किन्तु दु ख का सम्मान अवश्य करते है। दुख से परिचय अवश्य ही बढाना चाहिए, क्योकि पहले से ही सावधान व्यक्ति को अकस्माद् प्राने वाले, दुख भयभीत नही कर सकते । दुखो का स्वागत सहनशीलता से होता है । . . · सहिष्णुता अर्थान् सहनशीलता दो प्रकार की होती है, एक तो कष्ट और विपत्ति मे स्थिर रहना सिखाती है, दूसरी निषिद्ध वस्तुप्रो से दूर रहकर ज्ञान कराती है । सहिष्णुता भी धर्म का एक अंग है, जिसको सहिष्णुता,से प्रेम है वह उसे कभी छोड नही सकता, क्योकि प्रेम जीवन मे माधुर्य घोलता है और दुखो को हल्का भी करता है और साथ ही दु ख को सुख के रूप में बदल देता है । तप करना, किसी को वैयावृत्य मे.सलीन रहना, पैदल विहार योग : एक चिन्तन ]
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