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का अवतरण प्रारम्भ हो जाता है, यही दोष-प्रवृति का प्रथम नर है जिसे अतिक्रम कहा जाता है ।
२ व्यतिक्रम - किसी मूलगुण या उनर गुणो को टूपित करने के लिए कोई विधि या युक्ति सोचना और उन्हें दूषित करने के लिए सामग्री जुटाने की योजना बनाना व्यतिक्रम है । यही दोपी के दीपो का द्वितीय स्तर है ।
३ प्रतिचार - सोची हुई योजना के अनुसार अपराध करने के लिए कार्यक्रम मे जुट जाना श्रतिचार है । इसके मुख्यतया चार भेद है। पहला स्तर, दूसरा स्तर, तीसरा स्तर और चौथा स्तर | एक वह है जो व्यतिक्रम के निकट है श्रीर चौथा अनाचार के निकट है । इन भागो मे से किसी भी भाग मे पहुंचा हुआ दोप उत्तर-उत्तर व्रतो को क्षति ग्रस्त कर देता है, किन्तु बिल्कुल नष्ट नही करता । यही तीसरा स्तर है जिसके आधार पर प्रायश्चित्त का निर्धारण किया जाता है ।
४ अनाचार - जब प्रवल दोप से व्रतं या मर्यादा पूर्णतया ही भग हो जाए, विल्कुल ही मुर्दा हो जाए, तब उस दोप को अनाचार कहते हैं । अनाचार मे व्रत का कुछ भी अश शेष नही रह जाता, यह चौथा स्तर है दोप प्रवृत्ति का, जिसके लिये अधिकाधिक दण्ड अपेक्षित है ।
न्याय स्वपक्ष-विपक्ष से दूर रहकर ही किया जाता है । दूपितात्मा की शुद्धि हो जाए और सामाजिक वातावरण भी शान्त बना रहे वैसा न्याय करना चाहिए। निरपराधी को दडित न किया जाए और अपराधी को सुधार की दृष्टि से यथासम्भव दण्डित किया जाना ही चाहिये, श्रेष्ठजनो की रक्षा करना न्याय है । न्याय भी हिसा का ही दूसरा रूप है । न्याय से ही मानवता की रक्षा
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[ योग एक चिन्तन