________________
जैन मस्कृति का यह उद्घोप है कि सिंह वृत्ति वाले निर्भीक मुनि मृत्यु काल का ज्ञान प्राप्त करते ही अपने विशुद्धत र चारित्र, अपने सम्यग् जान एव अपनी उपतर तपस्या के द्वारा निर्भीक होकर अपनी आखो से पौलिक गरीर और मृत्यु के खेल को युस्कराते हुए देखता है, वह मरने के लिये नहीं मरता, अपितु मृत्यु का खेल देखने के लिये अपने शरीर को मृत्यु के अर्पित करता है। उसे उस समय वही आनन्द प्राता है, जो किसी वस्त्र-प्रिय व्यक्ति को पुराने वस्त्र त्याग कर नए वस्त्र धारण करते समय आता है। अत सलेखना पूर्वक मथारा आत्महत्या नहीं किन्तु मुनि-जीवन को साधना का एक विशिष्टतम अग है । मरने के तीन रूप-~~
किसी विशिष्ट सासारिक कारण से विवश होकर स्वय अपने प्राणो का नाश करना आत्महत्या हे । अात्महत्या के अनेको ही भेद है जैसे कि जलकर मरना, डूबकर मरना, फासी लेकर मरना, विष खाकर मरना, विजलो के करण्ट से मरना, ट्रेन आदि से कटकर मरना, गोलो खाकर मरना इत्यादि सब अात्महत्या के भेद हैं । इस विधि से मरने वाले को जैन मस्कृति प्रापनीय नहीं समझती । उसका कहना है कि दूसरे को हिंसा जैसे पाप की जननो है, वसे ही अात्महत्या भा पाप है, क्योंकि प्रमन योग से प्राणो का अतिपात करना ही पाप है।
दूसरे के द्वारा मारे जाने की सभावना होने पर उनकी निवृत्ति के लिये सागारी सथारा भी किया जा सकता है।
यदि किसी को यह बात हो जाए कि मेरा मरण-काल निकटतम है तो मुझे अब मोह ममत्व से निवृत होकर सलेखना एव सथारे द्वारा मृत्यु का स्वागत करना चाहिए ताकि मारणायोग ! एक चिन्तन ]
[२११