________________
वह दिखाई देना वद हो जाय तो भी मृत्यु-समय निकट जानना चाहिये।
मृत्यु दो तरह की होती है, ज्ञान-पूर्वक मृत्यु और अज्ञानपूर्वक मृत्यु । सलेखना एव सथारे के साथ मृत्यु का होना ज्ञानपूर्वक है । राग-द्वेष के साथ पाप-कर्मो का आचरण करते हुए काल-धर्म को प्राप्त होना अज्ञान-मरण है । अज्ञान-मरण से दुखो की परम्परा लम्बी हो जाती है और ज्ञानपूर्वक मरण से ससारयात्रा बहुत ही कम रह जाती है । जब तक किसी साधक को अपने मरणकाल का कोई ज्ञान नहीं है तब तक उसे सथारा करने की प्राज्ञा नही है, मृत्यु-समय का ज्ञान होने पर अन्त समय मे मानव-जन्म प्राप्त होने का पूर्णतया लाभ उठाने की भावना को साकार बनाने के लिए सथारा करना प्रावश्यक है। सथारे में करणीय नियम
सथारे मे चार वातो का त्याग होता है - आहार, शरीर, उपधि और पाप। इन चारो का त्याग तीन करण और तीन योग से किया जाता है ।
__ सथारा करने के दो मार्ग हैं श्रावक-मार्ग और साधु-मार्ग । सथारा प्रागार सहित भी किया जाता है और आगार के बिना भी। जो आगार-सहित किया जाता है, वह देव-सबन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी और तिर्यञ्च सवन्धी किसी उपसर्ग के उपस्थित होने पर किया जाता है । सागारी सथारा करने मे विकल्प होते है। यदि इस उपसर्ग से मेरा मरण हो जाए तो जीवन भर के लिए, यदि बचाव हो जाए, उपसर्ग टल जाए तो मै पारणा कर लूगा। यदि आगार-रहित सथारा किया गया है तो जीवन भर के लिए ही योग , एक चिन्तन ]
[ २१३