________________
कर मन को किसी व्येय विशेष पर केन्द्रित करना, जप में या पाठ से उपयोग लगाना, जैसे 'इर्यावही' का या "लोगस्पुज्जीयगरे" पाठ का यथासंभव अधिकाधिक ध्यान करना व्युत्सर्ग-प्रायश्चित है ।
६. तप-तप दो उद्देश्यों से किया जाता है- एक आत्मशुद्धि के लिए और दूसरा दोष-निवृत्ति के लिए । जिस दोप की निवृत्ति तप करने से ही हो, अन्य किसी साधारण प्रायश्चित्त से न हो सके, वह तप प्रायश्चित है | नवकारसी, पौरुषी, दोपौरुपी, एकाशना, एकल्लट्ठाण, रस परित्याग, ग्रायविल, उपवास, बेला, तेला यदि तपो के द्वारा दोषो की निवृत्ति करना ही तप-प्रायश्चित्त है ।
७. छेद - साधक के जिस दोष की निवृत्ति साधारण तप से न हो सकती हो और प्रबल तप करने की शक्ति भी उसमे न हो, तब उसे छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है, अर्थात् उसकी दीक्षापर्याय का छेद कर दिया जाता है । इससे जो ज्येष्ठ है वह कनिष्ठ वन जाता है और कनिष्ठ ज्येष्ठ वन जाता है । श्रथवा छेद प्रायश्चित्त लेने वाले के साथ जीवनभर के लिए कनिष्ठ सन्तों द्वारा ज्येष्ठ होते हुए भी कनिष्ठ जैसा व्यवहार किया जाता है, इसे ही छेद प्रायश्चित्त कहा जाता है ।
८. मूल - यह वह प्रायश्चित्त है जिसके करने पर साबु को एक बार लिया हुआ सयम छोड़ कर पुन दीक्षा लेनी पड़ती है, किसी महाव्रत के सर्वथा भग होने पर इस प्रायश्चित्त का विधान है ।
अनवस्थाप्य – दोप - निवृत्ति के लिये विशिष्ट तप करने के बाद ही दुवारा दीक्षा ग्रहण करने को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त कहा जाता है ।
1
यद्यपि दोषो की कोई गणना नही की जा सकती, वे अनगिनत हैं, तथापि उन सबको चार भागो मे विभक्त किया जा
२०४ ]
[ योग एक चिन्तन