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तक पाप या दोष की पहचान नहीं होतो तब तक उसकी निवृत्ति के लिए कभी सोचा नहीं जा सकता । अत अपनी आलोचना और अपनी निन्दा में रुचि का होना इस बात का प्रमाण है कि मैंने अपने घर की देखभाल करनी गरू करदी है। निंदा दूसरे की नही, अपनी करनी चाहिए, अपनी भी नही दूषित आत्मा की करनी चाहिए। जो दूसरो के अवगुण बखानता है, वह वस्तुत अपना अवगण प्रकट करता है। वही यह सिद्ध करता है कि "मैं दोप-दर्गी निन्दक ह।" सर्वोत्तम व्यक्ति वही है जो प्रात्मभाव में रहता है। जो सबके गुण लेता है वह उत्तम है। जो गुणी के ही गुण लेता है वह मध्यम है। अधम वह है जो दोपो का दोष देखता है। जो निर्दोपी का भी दोष ही देखता है, वह अधमाधम है। अत. मानव के लिए भगवान ने यही कहा है कि दोप देखना हो तो अपना देखो, जिस से दोप दूर करने की वृत्ति पैदा हो और अहकार मिट कर नम्रता पाये। अहभाव मे कोई भी साधक प्रायश्चित्त करने के लिए अपने आप को उद्यत नही करता, क्योकि विनीत व्यक्ति ही व्यक्तिगत और सामाजिक अनुशासन का पालन कर सकता है। अविनीत साधक साधना के क्षेत्र मे कही भी सफल नहीं हो सकता। विनीत साधक की दृष्टि अपने दोषो पर और दूसरो के गुणो पर रहती है।
प्रायश्चित्त-वह शास्त्रीय कृत्य प्रायश्चित कहलाता है जिस के करने से पाप या अपराध करनेवाले की पाप वृत्ति भविष्य के लिये छूट जाती है। प्रायश्चित्त दोष या अपराध से न न्यून होना चाहिए और न अधिक । प्रायश्चित्त देनेवाले को मध्यस्थ एव पक्षपात-रहित . होना जरूरी है और द्वेषभाव से दिया हुआ अधिक प्रायश्चित्त भी अन्याय है। अनिच्छा से स्वीकार करना दंड है और इच्छा २०२]
योग ; एक चिन्तन