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३० संग परित्याग
संग शब्द के यद्यपि अनेक अर्थ है, तथापि उनमें एक अर्थ मिलना और साथ रहना भी है ।
सग दो प्रकार का होता है-सुसग और कुसग । साधक को सबसे पहले कुसग से बचना चाहिए। जिन की संगति से जीवन पतन की ओर जाए, ऐसे लोगो का सग वर्जनीय है । जैसे सभ्य मानव कीचड से अपने ग्रगो को और वस्त्रो को सव तरह " से बचाने का प्रयत्न करता है, कही भी किसी तरह वस्त्रो पर धन्वा नहीं लगने देता और न ही रहने देता है, इसी प्रकार साधक भी जीवन की चादर पर कुसग का धव्वा नही लगने देता। जीवन मे बुराइयो का प्रवेश कुसग से होता है, श्रत उससे बचने के लिए साधक निरन्तर यत्नशील रहता है। यदि गुलाब के पौधे को तेजाव से सोचेंगे तो वह सूख ही जाएगा और यदि उसे अच्छे पानी से सोचा जायगा तो वह फूलेगा, फलेगा, अतः कुसंग तेजाब है श्रौर सुसंग पानी, जिनकी श्रद्धा प्ररूपणा ठीक है, उन की संगति मे रहना और मिथ्या दृष्टि एव ग्रसयतो से वचना, इन दोनो का एक साथ श्राश्रय ग्रहण करना ही कल्याण-प्रद है |
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सग का एक अर्थ और भी है, वह है सासारिक विषयो मे अनुराग या आसक्ति रखना । पाच इन्द्रियो के पाच विषय है-शब्द,
योग : एक चिन्तन ]
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