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का चिन्तन करना ही मसारानुप्रेक्षा है।
इन अनुप्रेक्षाग्रो से ससार को वास्तविक स्थिति का ज्ञान हो जाता है। जिस को खरे और खोटे रत्न का ज्ञान होता है वह खरे रत्न का कभी दुरुपयोग नहीं कर सकता और खोटे रत्न की चमक दमक को देखकर उस पर मुग्ध नही हो सकता । वह संसार को कदलीस्तभ के समान निस्सार समझता है । ससार को सारम्प समझना ही भूल श्रीर श्रज्ञानता है । संसार में यदि कुछ साररूप है तो केवली - भापित धर्म ही है । ससार के सयोग-वियोग-जन्य दुखों श्रीर सुखाभासो पर विचार करना ही धर्म ध्यान की प्रवृत्ति को जगाना है । धर्म ध्यान से ससार की निवृत्ति स्वय हो जाती है ।
धर्म- ध्यान का चौथा चरण है सस्थान-विचय। किसी ग्राकार विशेष का व्यान करना ही संस्थान-विचय है । आत्मा का श्राकार या उस के स्वरूप का विचार करना ही धर्मध्यान है । इस के मुख्यतया चार भेद है जैसे कि पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्य और रूपातीत । इन धारणाओ के बल से ध्यान की सिद्धि की जाती है ।
१. पिण्डस्थ - धर्म - ध्यान
ध्यान करने वाले के लिये ध्येय की सिद्धि के निमित्त सबसे पहले एकान्त एव शान्त वातावरण वाले स्थान मे पहुच कर पद्मासन या सुखासन से बैठकर अथवा कायोत्सर्ग मुद्रा मे खडे हो कर मन, वाणी और काय को एव इन्द्रियो को अशुभ प्रवृत्तियो से हटाकर अपने मे सलीन करना अनवार्य है । पिण्डस्थ का अर्थ है अपने पिण्ड मे श्रर्थात् शरीर मे अवस्थित श्रात्मा का ध्यान करना । इसकी सिद्धि के लिये क्रमश. पाच धारणाए उपयोग मे लाई जाती हैं जैसे कि
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[ योग : एक चिन्तन