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श्राधार पर और यदि पूर्वधर न होता प्राप्त श्रुतज्ञान के आधार पर एक पर्याय से दूसरी पर्याय मे तथा दूसरी पर्याय से तीसरी पर्याय में विचारो का सक्रमण करता रहे, यही इस ध्यान की उपयोगिता है । इस ध्यान का पूर्ण विकास ग्यारहवे गुणस्थान मे होता है ।
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एकत्व-वितर्क- अविचारी - इस ध्यान मे श्रुतज्ञान का प्रवलवन होने पर भी मुख्य रूप से प्रभेद चिन्तन की प्रधानता रहती है अर्थ, शब्द और योगो का पारस्परिक परिवर्तन एव सक्रमण नही होता । जिस प्रकार निर्वात स्थान मे दीपक की लौ डोल एव स्थिर रहती है उसी प्रकार इस ध्यान मे चित्त स्थिर रहता है । एक लक्ष्य को छोडकर दूसरे लक्ष्य पर नही जाता, चित्त एकाग्र हो जाता है । यह ध्यान क्षपक श्रेणी मे होता है और बारहवे गुणस्थान मे इसकी पूर्णता हो जाती है । उपर्युक्त दोनो मे से पहले भेद-प्रधान ध्यान का अभ्यास दृढ हो जाने के अनन्तर ही इस दूसरे प्रभेद - प्रधान ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है ।
सूक्ष्म क्रिया अनिवर्त्ती - शुक्लध्यान का तीसरा चरण तेरहवे गुणस्थान के अन्तिम छोर पर और चौदहवे गुणस्थान मे प्रवेश करने से पहले उपयुक्त होता है । मुक्त होने से पहले केवली भगवान मन और वचन इन दो योगो का निरोध पूर्णतया कर देते हैं, अर्ध काय-योग का निरोध भी कर लेते है । सिर्फ काय में उच्छवास और निश्वास श्रादि सूक्ष्य क्रियाएं ही रह जाती हैं । केवली वहा से पीछे नही हटते। योगनिरोध के क्रम मे काय-योग के सूक्ष्म रूप का आश्रय लेकर शेष सभी योगो को रोक लेते हैं ।
समुच्छिन्न- क्रिया-प्रप्रतिपाती - शैलेशी अवस्था को प्राप्त
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योग एक चिन्तन ]
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