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सिंहासनस्थ भगवान को छत्र चामरादि आठ प्रतिहार्यो के सहित देख रहा हूं। बारह प्रकार की परिपद भगवान के धर्मोपदेश सुन रही है। चौतीस अतिशय और पैतीस वाणो के अतिशयो से युक्त भगवान के दर्शन करने के लिए चिंतन करना, अरिहत भगवान का साकार ध्यान करना रूपस्थ धर्म-ध्यान है। ४ रूपातीत धर्मध्यान
जव ध्याता अपने को सिद्ध भगवान की तरह निर्विकल्प समझकर ध्यान करता है, तब ध्येय मे परिणत ध्याता भी अपने मे रूपातीत सिद्ध भगवान की अनुभूति करने लग जाता है।
सस्थान-विचय धर्मध्यान के पिण्डस्थ आदि चार भेदो मे से कोई सा भी भेद मन की एकाग्रता, कषायो के शमन, सवर एव निर्जरा मे समर्थ है। कोई सा भी ध्यान अपने आप मे न न्यून है और न अधिक । इनका उत्तरोत्तर विकास चौथे गुण-स्थान से प्रारम्भ होता है और सातवे गुण-स्थान मे धर्मध्यान की पूर्णता हो जाती है। धर्म-ध्यान मे पूर्णतया अप्रमत्त सयत ही लीन हो सकता है।
धर्मध्यान के सदर्भ मे दो परम्पराए विद्यमान हैं । एक मान्यता श्वेताम्बरो की है, वह सातवे गुणस्थान से लेकर बाहरवे गुणस्थान तक धर्मध्यान का अस्तित्व मानती है । दूसरी दिगम्बरो की है वह धर्मध्यान का अस्तित्व सातवे गुणस्थान तक ही स्वीकार करती है, आगे के गुणस्थानो मे शुक्लध्यान ही पाया जाता है । वह भी केवल पूर्वधर श्रुतज्ञानी मे ही, अन्य मे नही। शुक्लध्यान और उसके भेद -
जो ध्यान अत्युज्ज्वल हो, जिसमे प्रविष्ट होकर साधक को योग एक चिन्तन
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