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कोई विपरीत प्राचरण हो जाय, तब वह अपनी दूति ग्रात्मा की निन्दना करें, पश्चात्ताप करें । यहीं उम सामाचारी का भावार्थ है । साधु को प्रपनी भूल वडे चातुर्य से देखते रहना चाहिए तभी दोपो से निवृत्ति हो सकती है ।
ह तथाकार सामाचारी - प्रायश्चित्त देते समय, ग्रागमवाचना देते समय, शकाओ का समाधान करते समय जो कुछ भी गुरुजन कहें उस समय "तहत्ति" - जैसे श्राप कहते हैं वह सत्य है, ऐसा कहना तथाकार है। इसमे गुरु वचन विनयपूर्वक स्वीकृत किए जाते है । इससे शिष्य के मेन मे गुरुभक्ति का दिग्दर्शन कराया गया है । ग्रनाशातना और विनय ये दोनो ज्ञान प्राप्ति मे मूलकारण हैं ।
१०. उपसम्पदा सामाचारी- किसी भी गण मे जाकर साधक जो गुण-समृद्धि प्राप्त करता है उसे उपसम्पदा कहते हैं । सामान्यत. गण-व्यवस्था की दृष्टि से एक गण का साबु दूसरे गण मे नही जा सकता । इसके कुछ विशेष कारण भी हैं, परन्तु तीन कारणो से दूसरे गण मे जाना विहित है, घाध्यात्मिक लाभ के लिए अनिश्चित काल तक स्वाध्याय आदि के लिए अपने गण को छोडकर श्रन्य गण मे जाना उपसपदा है । उपसपदा के तीन भेद हैं ज्ञानउप सपदा, दर्शन उपसपदा और चारित्र - उपसपदा ।
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श्रागम-शास्त्रों के अध्ययन के लिए, शकाओं के समाधान के लिए, पुनरावृत्ति करने के लिए, ज्ञान की विशिष्टता के लिए नई धारणा एव नया ज्ञान प्राप्त करने के लिए दूसरे गण मे रहनेवाले किसी विशिष्ट ज्ञानी के पास गणनायक आचार्य की आज्ञा लेकर ज्ञान पाने के लिए जाना ज्ञानार्थ - उपसंपदा है ।
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[ योग : एक विन्तन्न