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' , दर्शन का अर्थ है श्रद्धा, जिस वस्तु का जैसा स्वभाव है उसे वैसा ही मानना-विश्वास करना सम्यग्दर्शन है। सच्चा परीक्षक वही होता है जो सत् और असत् मे, असली और नकली मे, खोटे और खरे मे भेद को समझ सके। सम्यग्दृष्टि भी प्राध्यात्मिकता के सदर्भ मे सच्चा पारखी होता है। अपनी श्रद्धा को विशुद्ध से विशुद्धतर बनाने के लिये तया दर्गन-शास्त्रो के रहस्य को समझने के लिए प्राचार्य के माध्यम से अनिश्चित या निश्चित काल के लिये दूसरे गण मे जाना दर्शनार्थ-उपसपदा है।
। किसी विशिष्ट सयमी के निर्देशन मे रहकर तपस्या, वैया. वृत्य, ध्यान-समाधि, कपाय-उपशमन, इन्द्रिय-निग्रह इत्यादि चारित्र-धर्म की विशिष्ट आराधना के लिए प्राचार्य के माध्यम से दूसरे गण मे जाना चारित्रार्थ उपसम्पदा है।
प्राचार्य के द्वारा की हुई व्यवस्था से एक गण को छोडकर दूसरे गण मे आना-जाना आगम-विहित है। अपनी इच्छा से दूसरे गण मे जाना स्वच्छन्दता है। अनुशासन से ही शासन चलता है। स्वच्छन्दता से अराजकता बढती है, जन-शान्ति डावाडोल हो जाती है, धर्म के प्रति जन-आस्था उठ जाती है। समाज मे विषमता पैदा हो जाती है । अत सब कार्य सघनायक की आजा से करने चाहिए, अपनी इच्छा से नही, यही उपसपदा सामाचारी से स्पष्ट सकेत मिलता है।
सामाचारी का सम्यक पालन ही चारित्र है। चारित्र का और विनय का सम्बन्ध सामाचारी के साथ ऐसा जुडा हुप्रा है जैसे बीज और छिलके का सम्बन्ध होता है। छिलके के बिना वीज अकिचित्कर है और बीज के बिना छिलका अकिंचित्कर योग एक चिन्तन
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