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स्थानो मे श्रार्त्तध्यान का अस्तित्व रहता है। आर्तव्यान का चौथा भेद प्रमत्त गुण स्थान में नही होता । अपने और अपने साथियो के प्रेम एवं राग से यह ध्यान होता है ।
रौद्र ध्यान का स्वरूप और उसके भेद
अप्रशस्त भावलेश्या एव द्वेष से क्रूरता पूर्ण भावो की सतत श्रवस्थिति ही रौद्र ध्यान है । इसके मुख्य चार मेद है जैसे हिंसानुवधी, मृपानुवधी, स्तेनानुवधी और सरक्षणानुवधी ।
शिकार खेलने के समय मन की एकाग्रता, दुनियावी स्वार्थी की पूर्ति के लिए किसी देव-देवी या पितरो के नाम पर बलि देते समय मन को एकाग्र करना, जनसहार के लिए वम वर्षा करना, किसी को मारने के लिए मन मे योजना बनाना, पनडुब्बी के द्वारा
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किसी समुद्री वेडे को डुबोना, विनाशक वस बनाने के तत्त्वो की खोज करना इत्यादि अनेक रूप हिसानुवधी रौद्रव्यान के है । दूसरो की हानि सोचना, दूसरो के विनाश के लिए टूना-टामन करना आदि भी इसी व्यान मे निहित हैं।
दूसरो को ठगने की प्रवृत्ति, मायाजाल की रचना, "मैं उसके सामने किस प्रकार का झूठ बोलू, किस प्रकार का झूठ बोल कर प्रमुक को निर्धन वना हूँ, राजा से रंक बना दूं, दूसरो को अपने जाल मे फसा दू, उसे वेइज्जत करदू, उसके ऊपर कैसा श्रारोप लगाऊं कि उसकी संपत्ति हड़प कर जाऊ", इस प्रकार के असत्य वोलने की एव दूसरो को पीडित करने की योजनाए बनाना मृषानुवधी रौद्रध्यान है ।
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डाका मारना, चोरी करना, किसी की गाठ काटना, किसी को मार्ग मे लूटना, जूआ खेलना, किसी से धोखेबाजी करना, योग एक चिन्तन |
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