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का या दु ख का देनेवाला अन्य कोई नहीं है तब वह सोचता है। "हे पात्मन् | दूसरा कोई दुख या सुव देता है इस वुद्धि चा मिथ्या धारणा को विल्कुल छोड दे।" ऐसा चिन्तन करने वाले सावक को सुख-प्राप्ति में कभी अहकार नहीं होता और दुखो के आक्रमण से कभी घबराहट नही होती, वह समता से दोनो का स्वागत करना अपना धर्म समझता है।
४. संस्थान-वित्रय - लोक के स्वरूप एव स्वभाव मे मनोयोग देना सस्थान-विचय चर्म-ध्यान है। प्रागमो के स्वाध्याय से लोक स्वरूप और लोकस्वभाव का ज्ञान होता है। यद्यपि लोकस्वरूप और लोक-स्वभाव ये दोनों अलग-अलग हैं, तथापि इन दोनों का परस्पर आधार-आधेय सबध है, क्योकि लोक-स्वरूप का ज्ञान होने पर ही लोक-स्वभाव का ज्ञान हो सकता है। लोक स्वरूप का अर्थ है-लोक का प्राकार,अायाम-विष्कम्भ, समभाग, मध्यभाग, विशालता, लोक-स्थिति आदि विषयो पर चिन्तन करना । जब ध्याता प्राणियो की उत्पत्ति, स्थिति, जन्म-मरण सुख-दुख, पुण्यपाप, राग-द्वेप आदि विषयो की ओर मनोयोग देता है तब वह लोक-स्वभाव कहलाता है। अत लोक स्वरूप मे लोक स्वभाव का होना निश्चित है।
. इस ध्यान से तत्वज्ञान की विशुद्धि होती हैं, मन अन्य वाह्य विषयो से हट कर स्थिर हो जाता है, मानसिक स्थिरता द्वारा आध्यात्मिक सुखो की प्राप्ति अनायास हो जाती है। धर्म-ध्यान का पहला चरण ध्याता को ध्येय के गुणो की ओर आकृष्ट करता है। धर्म-ध्यान का दूसरा चरण ध्याता को पापवृत्तियो से निवृत्त होने की प्रेरणा देता है। धर्मध्यान का तीसरा चरण ध्याता को कर्म-सिद्धान्त को जानकारी के साथ-साथ उदीयमान कर्म-प्रकृतियों
६ योर एक चिन्तन