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मुनीश्वरों द्वारा निर्दिष्ट वे साधन, जिनका आचरण कर्मक्षय के लिए किया जाए या पारलौकिक सुख-प्राप्ति के लिए किया जाए, अथवा जो साधन अभ्युदय और नि श्रेयस की सिद्धि के मूलकारण हैं । अथवा जो गुण-विशेप के विचार से उचित और आवश्यक हो, अथवा जिन से प्रात्मा अष्टविध कर्मवध से एव सव प्रकार के दुखो से मुक्ति दिलाने वाला हो, वही तत्त्व-धर्म है। इसके अनेक अवान्तर भेद हैं जैसे किधर्म का एक भेद-वस्तु का स्वभाव ही धर्म है-"वत्थसहावो
धम्मो" अथवा प्राज्ञा मे धर्म है, अथवा प्रात्मा __ की अन्तर्मुखीवृत्ति ही धर्म है ।
धर्म के दो भेद-सयम और तप, अशुभ से निवृत्ति और शुभ मे
प्रवृत्ति, श्रुतधर्म और चारित्र धर्म, सम्यक् ज्ञान . . . और सम्यक् क्रिया, विद्या और चारित्र, राग
और द्वेष से निवृत्ति, व्यक्तिगत धर्म और सामाजिक धर्म, सवर-धर्म और निर्जरा-धर्म, सूत्र-धर्म और अर्थ -धर्म, अगार-धर्म और अन
गार-धर्म । धर्य के तीन भेद-अहिंसा, सयम और तप। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और
चारित्र । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति,
कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञान-योग । धर्म के चार भेद-दान, शील, तप और भाव । ज्ञान, दर्शन, .... चारित्र और तप । विनय, श्रुत, तप और
आचार। आज्ञा-विचय, अपायविचय, विपाकयोग एक चिन्तन ]
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