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करना प्रतिपृच्छना है । शिष्य को गुरु से पूछे बिना कोई काम करना ही नही चाहिए, चाहे वह कार्य अपना हो या दूसरे का। पूछने पर भी यदि आज्ञा दे तो करे, नहीं तो न करे । जो काम पूछ कर किया जाता है उसमे अशान्ति नहीं होती, वैमनस्य पंदा नहीं होता और गण एवं संघ मे अखण्ड गान्ति बनी रहती है।
५ छन्दना सामाचारी-लाए हुए ग्राहार का यथाविधि सविभाग करने पर अपने हिम्से मे से भी अन्य मुनिवरो को निमत्रण करना अथवा मुनिवर को भिक्षा में जो प्राप्त हुआ है उसके लिए भी अन्य साधुनो को निमत्रित करना छन्दना-सामाचारी है । इसमे अन्यान्य साथी मुनिवरो से सहानुभूति, अपनत्व, प्रीति आदि की वृद्धि होती है और साथ ही उदारता भी प्रकट होती है, रसनेन्द्रिय-विजय और सतोप, ये उदारता के सहयोगी गुण है।
६. अभ्युत्थान सामाचारी-अभ्युत्थान शब्द गुरुजनो के पधारने, खडे होने और उद्यम करने के अर्थ मे रूढ है, अर्थात् गुरुजनो के आगमन पर, उनके खडे होने पर एव उनके द्वारा किसी कार्य मे प्रवृत्ति करने पर शिष्य को उनसे पहले ही खडे हो जाना चाहिये, इसे ही अभ्युत्थान सामाचारी कहा जाता है।
यदि किसी.साधु को भिक्षा के लिये जाने पर आहार नही मिला, यदि वह दूसरी वार अाहार लेने के लिए जाने लगे तो उसे दूसरे साधुनो से पूछना चाहिए कि "क्या मैं आपके लिए भी आहार लाऊ?" इस प्रकार पदार्थ-प्राप्ति से पहले ही साधुग्रो को ग्रामत्रण करना चाहिए। इसी को दूसरे शब्दो में निमन्त्रण भी कहते है। छन्दना और अभ्युत्थान ये दोनो समा१६२ ]
योगे एक चिन्तन