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. ३. प्रापच्छा सामाचारी-अपना कार्य हो या किसी दूसरे का कोई कार्य हो, साधु, धर्माचार्य, गुरुजनो या रातिको से बिना पूछे न करे । पूछने पर एव प्राज्ञा प्राप्त होने पर ही उसे किसी कार्य मे प्रवृत्त होना चाहिए। यह सामान्य विधान है कि उच्छवास एव नि श्वास के अतिरिक्त गेष सब कार्यो के लिए साधु को गुरु की पाना लेनी चाहिए। विनीत शिष्य गुरु की स्पष्ट आज्ञा का इच्छुक होता है, क्योकि उसका यह विश्वास है कि गुरु की आज्ञा कार्य-सिद्धि मे सहायक होती है। गुरु की आज्ञा मे चलने से ही मेरा हित है। इससे हानि और लाभ का उत्तरदायित्व मेरे पर नही गुरु पर हो जाता है और अहभाव भी मन मे नही रहता। प्रत कोई भी काम जव शिष्य को करना हो, तव गुरुजनो को पूछ कर ही करना चाहिए। इस सामाचारी का सही अर्थो मे यदि गण मे रहने वाले साधु पालन करते रहे तो शासन की सेवा और बडो की कृपा-दृष्टि अखण्ड बनी रहती है।
४, प्रतिपच्छा सामाचारी~गुरु के द्वारा किसी कार्य में नियुक्त किए जाने पर उसे प्रारम्भ करते समय पुन गुरु से पूछ कर-आज्ञा लेना, अथवा प्रयोजन-वश गुरु ने पहले जिस कार्य को करने के लिए निषेध किया है, आवश्यकता होने पर फिर उसकी अाज्ञा गुरु से प्राप्त करने को प्रतिपृच्छा कहते हैं। यदि गुरु ने किसी कार्य को करने का निषेध कर दिया है, उसी कार्य मे प्रवृत्त होना यदि अावश्यक हो तो गुरु से पूछना चाहिये कि "गुरुदेव ! भले ही इस कार्य के लिए आपने पहले मना किया था, किन्तु समयानुसार यह काम करना ज़रूरी भी बन गया है, यदि आप आज्ञा दे तो मैं करू ?" यही इस सामाचारी'का भाव है।
अथवा अपने काम को करने के लिए गुरु से आजा प्राप्त योग एक चिन्तन
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