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(ज) अपायदर्शी-यदि कोई साधक आलोचना ठीक तरह से नही कर रहा है तो उसको परलोक का भय दिखाकर तथा प्रायश्चित्त न करने पर उससे होने वाली हानियो को युक्ति-सहित प्रदर्शित करके प्रायश्चित्त मे रुचि जागृत करने वाला अपाय-दर्शी कहलाता है।
(झ) प्रियधर्मा-सुखदशा मे जिसको धर्म अत्यन्त प्रिय हो। (अ) दृढधर्मा-दुख की दशा में भी जो धर्म मे दृढ रहता हो।
इन दस गुणो से सपन्न मुनिवर के समक्ष आलोचना सुनानी चाहिए, परन्तु प्रत्येक साधक इन गुणो से सम्पन्न नहीं होता। भला जिसको प्रायश्चित्त-विधि का जान ही नहीं है, वह पालोचना कैसे करवा सकता है ? उसके सामने पालोचना करने से लाभ की अपेक्षा हानि होने की सभावना अधिक रहती है।
' आलोचना करनेवाला अनेक कारणो से अपने दोपो को छिपाने का प्रयत्न करता है जैसे दड के भय से, अपयश के भय से, लज्जा के वश होकर, स्ववचना या पर-वचना करके । अतः प्रायश्चित्त देनेवाले आचार्य प्रादि को सर्व प्रथम ऐसे कारणो के भय से सावक को मुक्त कर देना चाहिये । यदि कोई साधक मिथ्या या सदोप आलोचना करता है तो वह पाराधक बनने के योग्य नहीं होता। सदोष आलोचना के दस रूप है, जैसे कि
(क) प्राकम्पयित्ता-कापते-कापते आलोचना करना या प्राचार्य को विनय-भक्ति से प्रसन्न करके फिर उन के पास सालोचना करना, जिसमे कि वे बहुत वडा प्रायश्चित न देकर कोई छोटा-सा प्रायश्चित्त दे दें अथवा क्षमा ही कर दे । जैसे अतिमलिन वस्त्र को अति स्वल्प जल से शुद्ध नही किया जा सकता, योग एक चिन्तन ]
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