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। २ मषावाद-विरमण-असत्य के सभी भेदो मे पूर्णतया निवृत्त होना और निर्दोप सत्य की ओर प्रवृत्ति करना, सत्य भगवान के दर्शन करना, ये सब समाधि-मन्दिर में प्रवेश करने के मार्ग है।
३ अदत्तादान-विरमण-बिना अाज्ञा के किमी की वस्तु को ग्रहण करना, अदतादान है। किसो भी जड-चेतन प्रादि छोटीबड़ी वस्तु को उसके स्वामी को पाना लिए बिना न उठाना अदत्तादान-विरमण है । इससे भी मन समाधिस्थ होता है।
४ मैथुन-विरमण-काम-वासना के छोटे-बडे सभी पहलुयो से निवृत्त होना और ब्रह्मविद्या मे सलीन होना समाधि का चौथा कारण है।
५ परिग्रह-विरमण-कनक और कामिनी, से, चल और अचल सपत्ति से, सोने-चादी से, धन-धान्य से, पशु-पक्षी से, यानवाहन से अर्थात् ममत्व के सभी साधनो से निवृत्त होकर उत्तम संतोप मे प्रवृत्ति करने पर मन की विपमता समाप्त हो जाती है और साधक का समता के क्षेत्र मे प्रवेश हो जाता है। समता के असीम क्षेत्र मे प्रवेश करने से समाधि स्वय हो जाती है।
६ ईर्या-समिति-सयम, विवेक एव यतना से काय की । प्रवृत्ति करना।
७. भाषा-समिति-सयम, विवेक एव यतना से भापा वोलना।
८. एषणा-समिति-ग्राहार-पानी, वस्त्र, पात्र, मकान, चौकी, पट्टा आदि निर्दोप एव कल्पनीय वस्तुओ का सयमी जीवन के अनूकूल यतना से ग्रहण करना। ६२]
[ योग ' एक चिन्तन