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६ काय-विनय
काय से प्राचार्य आदि का विनय करना, काय की अशुभ प्रवृत्तियो को रोकना, सावधानी से गमना-गमन करना, सावधानी से खडे होना, सावधानी से वैठना, सावधानी से लेटना, सावधानी से देहली आदि को लाघना और सभी इन्द्रिय और योगो को यतना से वर्ताना ये सव प्रशस्त काय-विनय के रूप है। अशुभ सकल्पो से मन को, अशुभ वाणी से वचन को और अशुभ प्रवृत्ति से काय को लौटाना, बचाना और शुभ प्रवृत्तियो मे लगाना सच्ची एव प्रशस्त विनय कहलाती है।
विनय, भक्ति, प्रेम एव प्रीतिवंश किसी देवी-देवता की धाराधनों के लिये या असयमियो के प्रेमवश होकर द्रव्य-पूजा करना धर्म के नाम पर छ काय की हिसा करना, पशु-बलि देना, चोरी करना, भक्ति वश मन, वचन और काय की असयमपूर्वक प्रवृत्ति करना, क्रमश अप्रशस्त मन-विनय, वचन-विनय और काय-विनय है। यह पाप-वध का भी कारण हो सकती हैं और पापानुबन्धी पुण्य का कारण भी हो सकती है, अत यह सवर-निर्जरा और शुभानुवन्धी शुभ का बन्ध नही होने देती, इसीलिये ये तीनो अप्रशस्त विनय साधक के लिये सर्वथा त्याज्य हैं। ७ लोकोपचार-विनय ' जो बाह्य क्रियाए केवल दूसरो की दुख निवृत्ति के लिए या सुख पहुचाने के उद्देश्य से की जाती हैं, वे लोकोपचार विनय के अन्तर्गत पाती हैं। लोकप्रिय बनने के जो साधन है उनको उपयोग मे लाते समय जो कुछ करना होता है वह लोकोपचार विनय है। मुनिवरो ने इसके सात भेद प्रस्तुत किये हैयोग , एक चिन्तन ]
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