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पायुक्र्म का वध नही हो सकता। ..
कर्म-वध के कारणो का क्षय होने पर कर्म-व्युत्संग होता है, क्षपक श्रेणि में और यथाख्यात-चारित्र काल मे घोति कर्मों का वध नही हो पाता, बल्कि समय-समय पर वे बलहीन होतेहोते बाहरवे गुणस्थान मे उन्हे सर्वथा क्षीण कर दिया जाता है। क्षीण होते ही जानावरणीय कर्म-व्युत्सर्ग, दर्शनावरणीय कर्मव्युत्सर्ग और अतराय कर्म-व्युत्सर्ग स्वत हो जाया करता है।
तेरहवे गुणस्थान में प्रवेश के पहले समय मे ही केवलज्ञान, केवलदर्शन, सादि अनन्त वीतरागता और विघ्नो का ऐकान्तिक अभाव, अनन्त-शक्ति इत्यादि गण घाति कर्मों के क्षय होने से उत्पन्न हो जाते हैं। चौदहवे गुणस्थान मे अघाति कर्मों का क्षय हो जाता है । शुक्लध्यान के चौथे चरण मे जब वेदनीय-कर्म-व्युत्सर्ग, श्रायु-कर्म-व्युत्सर्ग, नाम-कर्म-व्युत्सर्ग और गोत्रकर्मव्युत्सर्ग हो जाता है, अर्थात् इन कर्मों का अवसान हो जाता है, तब जीव सिद्धत्व को प्राप्त कर लेता है, अात्मा से परमात्मा बन जाता है । कर्म-व्युत्सर्ग चौदहवे गुण स्थान मे ही होता है।
कहीं-कही भाव व्युत्सर्ग के चार भेद उपलब्ध होते है वही पर चौथा भेद योग-व्युत्सर्ग भी देखने को मिलता है। तीन योगो का त्याग करना योग-व्युत्सर्ग है । मन वचन और काय की प्रवृत्ति को योग कहते है । योगो का निरोध ही योग-व्युत्सर्ग है। पूर्णतया योगनिरोध चौदहवे गुणस्थान में ही होता है। योग-निरोध होते ही जीव परमपद को प्राप्त कर लेता है । व्युत्सर्ग-तपे मोक्ष-प्राप्ति मे अन्तरगं कारण है, इसकी आराधना से सभी अन्तरग विकार नष्ट हो जाते हैं । यह परमशान्ति एव अखण्ड समाधि का मूल' कारण है।
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[ योग 'एक चिन्तन