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२५. व्युत्सर्ग
तप के बारह भेदो मे से बारहवा भेद व्युत्सर्ग है, इसका अर्थ है परित्याग, विशेषतः ममत्व का परित्याग । ममत्व का त्याग करने पर ही इस तप की सार्थकता है।
इसके दो भेद है द्रव्य-व्युत्सर्ग और भाव-व्युत्सर्ग।
तप-परायण साधक शरीर आदि बाह्य पदार्थों का निश्चित काल के लिए या अनिश्चित काल के लिए या जीवन भर के लिए जो परित्याग करता है उसे द्रव्य-व्युत्सर्ग कहा जाता है। अपने शरीर पर भी ममत्व न रखना शरीर-व्युत्सर्ग है ।
कल्पातीत या जिन-कल्प स्वीकार करने पर अपने गण या गच्छ का भी परित्याग कर देना गण-व्युत्सर्ग है।
-जीवन-यात्रा के लिये अत्यावश्यक वाह्य उपकरणो को छोड़कर शेष सभी उपकरणो का त्याग करना अथवा सभी तरह की उपाधियो का पूर्णतया त्याग करना उपधि-व्युत्सर्ग है। भला जो अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखता, वह वाह्य उपवि अर्थात् उपकरणो पर ममत्व का विस्तार क्यो करने लगा? ममत्व ही दु ख का मूल कारण है। ममत्व की निवृत्ति से दु.ख की निवृत्ति स्वत हो जाती है। __सदोष आहार-पानी का त्याग करना अथवा सथारे मे जीवन भर के लिए निर्दोष आहार-पानी का त्याग करना, भक्त १५०]
[ योग . एक चिन्तन