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वन्दना नमस्कार करके १४ प्रकार की वस्तुग्रो मे से जिस वस्तू की उन्हे आवश्यकता हो या अपनी बुद्धि से स्वय उनकी आवश्यकता को समझकर सहर्ष समर्पित करना उनके ज्ञान, दर्शन और चारित्र की जैसे भी पुष्टि हो, वृद्धि हो-वैसी वस्तु बहराना अतिथिसविभाग-प्रत है। ..
यह व्रत धर्म-दान के अतिरिक्त अन्य प्रकार के दानो की ओर सकेत नही करता । दान अनुकम्पा से भी दिया जाता है और श्रद्धा भक्ति से भी। अनुकम्पा-दान किसी भी व्रत का बाधक नही है, वह पुण्योपार्जन का हेतु है और प्रभावना का भी, किन्तु धर्म-दान निर्जरा एवं पुण्यानुवधी पुण्य का हेतु है, सम्यक्त्व का पोषक और मिथ्यात्व का शोधक है। प्रत श्रमण महन के अतिरिक्त अन्य भिक्षाचरो के लिए अतिथि शब्द का प्रयोग नहीं होता।
'सग्रह-परायण मनोवृत्ति को निष्क्रिय बनाने और त्याग भावना को जागृत करने के लिए इस व्रत का विधान है। यह अनुदारता एव ममत्व भाव को हटाने के लिए तथा उदार एव दाता बनने का मार्ग है । अन्याय-अनीति से द्रव्योपार्जन करने का त्याग और न्याय-नीति से उपार्जित किए हुए द्रव्य का उपयोग धर्मदान और अनुकम्पादान मे करना अपरिग्रह है। अपनी सुखसुविधानो मे सकोच करना और वस्तु एव द्रव्य पर से ममत्व घटाते रहना, श्रावक का परम लक्ष्य है, क्योकि ममत्व घटाने एव हटाने 'पर हो उसका उपयोग दूसरे के लिए किया जा सकता है। समाज की भलाई के लिए दान करना निष्परिग्रहता है और धर्मदान उत्तर-गुण है । सुपात्र को दान देने से मन के भाव सर्वथा पवित्र हो जाते हैं । उत्तरगुण चाहे महाबत के हो या अणुव्रत के, वे सभी साधको के जीवन का उत्थान करनेवाले हैं।
योग : एक चिन्तन ]
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