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प्रकार का होता है जिसे तप द्वारा शास्त्र-वचनो द्वारा एव सन्तो के उपदेश द्वारा झुकाया जा सकता है ।
जैसे मेढे के सीग का टेढापन विशेष विधियो से सीधा हो जाता है, अर्थात् कुछ उपायो से उसे सीधा किया जा सकता है,वैसे ही कुछ साधको की माया बड़े परिश्रम से ही दूर हो सकती है। इस माया की स्थिति भी उत्कृष्ट साल भर रह सकती है।
गन्दे नाले का कीचड यदि वस्त्र आदि मे लग जाए तो वह अतिकष्ट से छूटता है। अप्रत्याख्यान लोभ का स्वभाव भी इसी प्रकार का होता है । यह कषाय चौथे गुण स्थान तक रहे हुए जीवो मे पाया जाता है । इस कषाय के क्षय या उपशम करने को भी संवर कहा जाता है। अविरत-सम्यग्दृष्टि मानव सवत्सरीपर्व पर क्षमापना द्वारा इसे छोड़ देते हैं, इस अपेक्षा से इस 'कषाय की स्थिति साल भर की बताई गई है।
प्रत्याख्यानावरणीय कषाय वह कहलाता है जिसकी उपस्थिति मे सर्वविरतित्व के भाव उदित नही हो पाते और वह देशविरतित्व (श्रावक धर्म) मे बाधक नहीं बनता। इस कषाय की स्थिति उत्कृष्ट चार महीने की मानी गई है। इस कषाय के उदय भाव मे जीव मनुष्यगति-योग्य कर्मों का उपार्जन करता है। इस कपाय के अतर्गत जब भी क्रोध उत्पन्न होता है तो उसका स्वभाव रेत मे खीची हुई लकोर के समान होता है । रेत मे लकीर खीचने पर कुछ ही समय मे वायुवेग से वह लकीर रेत से भर जाती है, वैसे ही यह क्रोध, क्षमा आदि सुविचारो से शान्त हो जाता है। ___. जो मान काठ के खभे के समान है जैसे काठ को तेल मसलने से या अग्नि का सेक देने से वह नम जाता है, वैसे ही जो मान १०]
[ योग - एक चिन्तन