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है, गेप पाठ मे से एक कल्पस्थित गुरु' और 'सात साधु प्रानुपारिहारिक बन जाते हैं। इस क्रम से परिहार-विशुद्धि-चारित्र की आराधना मे कुल अठारह मास लगते है। परिहार-तप पूर्ण होने पर उनकी तीन गतिया होती हैं, उसी तप को वे पुन भी धारण कर लेते है, जिन-कल्पी भी बन जाते है, और पुन. वापिम उस गच्छ मे भी सम्मिलित हो जाते हैं, जिस गण से वह निकला होता है। ___ 'सक्षम-संपराय सम्पराय का अर्थ है कपाय। जिस चारित्र मे सज्वलन लोभ का उदय सूक्ष्म रूप से होता है, वह सूक्ष्म सम्पराय-चारित्र कहलाता है। इस चारित्र का सद्भाव दसवे. गुणस्थान मे होता है। इसके दो रूप है-विशुध्यमान-सूक्ष्म-संपराय
और संक्लिश्यमान-सूक्ष्म-सपराय । क्षपक श्रेणि या उपशम श्रेणि में आरोहण करने वाले साधु के भाव उत्तरोत्तर विशुध्यमान होते जाते हैं, अत. उसका चारित्र विशुध्यमान-सूक्ष्म-सम्पराय होता है। जब कोई साधर्क किसी श्रेणि से नीचे अवतरण करता है तवं दसवे गुणस्थान मे उसका चारित्र' सक्लिश्यमान सूक्ष्म सपराय होता है । इसमे वर्धमान या हीयमान परिणाम होते है, अवस्थित नही । दोनों अवस्थाओ में साकारोपयोग होता है।
. यथास्यात-चारित्र-जिस साधु के परिणाम अतिविशद्ध हो अथवा जिसमे मोह की सभी प्रकृतिया उपशम हो गई हो या सर्वथा प्रक्षीण हो गई हो, उसका चारित्र यथाख्यात-चारित्र होता है । इस चारित्र मे शुक्लध्यान एव वीतरागता की अभिव्यक्ति होती है। इसके भी दो रूप है-छाद्मस्थिक वीतरागता और और केवली वीतर गता। ग्यारहवे और बारहव गुण स्थान में छानस्थिक वीतरागंता होती है। तेरहवे और चौदहवे गुणस्थान मे केवली वीतरागता होती है। इस तरह यथास्यात-चारित्र योग एक चिन्तन ]
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