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निम के चार गुणस्थानों में पाया जाता है। स्थान तक 'सराग-सयम' होता है, 'वीतराग-संयम' नहीं |
सगुण
सामायिक चारित्र सभी चारित्रो की ग्राधार भूमि है। इसके बिना छेदोपस्थानीय चारित्र नहीं, छेदीपस्यापनीय के विना परिहार - विद्धि चारित्र नहीं । सामायिक चारित्र के बिना सूक्ष्म-संरराय - चारित्रं नहीं, सूक्ष्म संपराय चारित्र के विना ययात्यात चारित्र नहीं । श्रादि के दो चारित्रों के द्वारा साधक के वृद्ध परिणाम-भाव नौवे गुणस्थान तक का स्पर्श कर सकते हैं । तीसरे चारित्र के माध्यम से साधक के विशुद्ध परिणाम अधिक से अविक सातवें गूणस्थान तक गति कर सकते है । क्षपक श्रेण उपगम श्रेणि की रचना परिहार- विशुद्धि चारित्र मे नही होती। पहले के दो चारित्रों में रहते हुए साधक श्रेणी की. रचना कर सकता है। चौया चारित्र दो केवल दसवे गुणस्थान मे ही गाया जाता है, अन्य गुणस्थानों में नहीं। जहां कथनी और करणी एक समान हो, वह व्याख्यात चारित्र है । इसमें वर्तमान : साधक जैसे कहता है, वैसे ही करता है। जब उसकी अन्तर्मुखी वृनियां अपने आप में पूर्ण हो जाती हैं, तब उस निष्प्रकंप अवस्था का नाम ही यथास्यात चारित्र है। इसका अस्तित्व वीतरागता में पाया जाता है । श्रात्मा की पूर्णतया निष्प्रकंप अवस्था इस प्रयोगिकेवलि - गुणस्थान मे होती है, जहां से सिद्धत्व की प्राप्ति होती है ।. मूलगुण- प्रत्याख्यान सभी चारित्रों में अनुस्यूत रहता है।
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अणुव्रत -
महाव्रतों की तरह अणुव्रत भी महात्रतों की अपेक्षा जो व्रत छोटे हो उन्हें
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मूलगुण प्रत्याख्यान है । - व्रत कहते हैं जिन
[ योग . एक चिन्तन