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२४. उत्तरगुराण-प्रत्याख्यान
- जिस त्याग से उत्तर गुणो की वृद्धि हो, जो त्याग मूल-गुणो का पोषक, रक्षक एवं सवर्धक हो, वह उत्तरगुण-पच्चक्खाण कहलाता है । जैसे खेती के बिना बाड़ की सार्थकता नही होती, उसकी सार्थकता' खेती के होने पर ही है। जैसे धन के बिना तिजौरी निरर्थक .है, जब वह धन की रक्षा करती है तभी उसकी सार्थकता है । जैसे अन्दर-बाहर दृढ पलस्तर लगाने से मकान की रक्षा भी होती है और उस की सुन्दरता भी बढ़ जाती है, जैसे ग्रीष्म काल मे जल-घट को ठण्डे वातावरण मे रखने से कुछ देर के बाद जल-स्वय ही,ठण्डा हो जाता है, वैसे ही मूलगुणो का पोषण, रक्षण- एव. सवर्धन उत्तरगुणो से होता है। उत्तरगुण-तपविशेष है, सयम की शोभा तप से है और तप की शोभा सयम से है। सयम के बिना,तप वाल-तप है । तप. के विना सयम सुरक्षित नहीं रह सकता। सयम - साधु-जीवन का अभिन्न अङ्ग है, उसके बिना साधु साधु ही नहीं रह जाता, किन्तु तप यथाशक्ति देश और काले की सीमा बाघ कर किया जाता है । जीवन भर के लिये साधना मे सलग्न रहना ही सयम है. कभी कभी विशेप विधि से जप, ध्यान और स्वाध्याय करना और खाने-पीने का त्याग करना तप है। सयम को मूलगुण कहते है और तप को उत्तर-गुण कहा जाता है। सयम आती हुई बुराई, को रोकता है और तप के योग एक चिन्तन ]
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