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हैं, वैसे ही शिक्षावती के बिना गणत निर्बल पार गुणना का निर्बलता से अणुवन निर्मूल हो जाते हैं। शिक्षाद्रतों का स्वरूप इस प्रकार है
१. सामायिक-त-प्रणयतो और गणरत्तों की सम्यक अाराधना मे मामायिक विशुद्ध होती है। जान, दर्गन और देशसयम की आराधना करना हो मामायिक है। इनमें कम से कम दो घटी, चार घडी या छ- घडो भर पाप सहित मन वाणी और काय के व्यापार का पच्चक्लाण करना, धर्मशास्त्रो का स्वाध्याय और धर्म-ध्यान मे प्रवृत्त होना ही सामायिकवत है।।
२. दिशावकाशिक व्रत-कुछ घटो के लिए दिनापरिमाण व्रत को प्रोर उपभोग-परिभोग परिमाणवत को और भो मकुचित करना, या चौदह नियमों को मर्यादा करना । इमका विधि-विधान दिन-दिन के लिए भी है, रात भर के लिए भी और अहोरात्र के लिए भी । इस व्रत के साधक को अतिसीमित क्षेत्र में ही अहिंमा, सयम और तप की प्राराधना करने का व्रत लेना चाहिये । इसमें सभी सचित्त वस्तुप्रो के सेवन करने का त्याग होता है, अचित्त वस्तुप्रो का भी यथाशक्ति कम से कम उपयोग किया जाता है और किन्ही वस्तु का त्याग भी होता है । इस व्रत को दूसरे शब्दो मे छ: काय-दया और सवर भी कहते है।
३ प्रतिपूर्णपोषधोपवास व्रत-यह श्रावक के बारह व्रतो में से ग्यारहवा, चार शिक्षाव्रतो मे से तीसरा तथा उत्तर गुणों मे से छठा व्रत है। इसकी आराधना अधिकतर पर्व के दिनो मे की जाती है। पर्व दो प्रकार के होते हैं-भोग-प्रधान और त्यागप्रधान । जिन पर्यों में खान-पान का, आमोद-प्रमोद का ढग १४६)
योग : एक चिन्तन