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चारित्र दिया जाता है। इससे विपरीत मूलगुणों को दूपित करने बाले सर्वविरति साधक को सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र दिया जाता है।....
। । परिहार-विशुद्धि चारित्र-परिहार का अर्थ है। विशिष्ट तप, जिस तपोमयी अवस्था मे रहकर साधक विशिष्ट तप द्वारा चारित्र की विशुद्धि करता है, अथवा जिसमे अनेषणीय आहार प्रादि का विशेष रूप से त्याग किया जाता है, वह 'परिहार-विशुद्धि चारित्र' है। इसका अस्तित्व पहले और चौबीसवे तीर्थङ्करी के शासन-काल मे ही पाया जाता है। जिसने पहले कभी परिहारविशुद्धि-चारित्र अगीकार किया हो, उस साधु के सानिध्य मे इस चारित्र को धारण किया जाता है । नव साधुओ का एक गण. बनना है, वह गण-परिहार-तप अगीकार करता है । वे तपस्वी-साधु तीन भागो मे बट जाते हैं, जैसे कि पारिहारिक, प्रानुपारिहारिक और कल्पस्थित गुरु । जो चार साधु पहले छ• महोने तप करते है, वे पारिहारिक, उनकी सेवा मे रहने वाले चार साधु पानुपारिहारिक कहलाते है, जिसकी आज्ञा एवं साक्षी से, आलोचना वन्दना पच्चक्खाण, स्वाध्याय आदि अनुष्ठान किए जाते है, वह कल्पस्थित गुरु कहलाता है । ' .
. - -- पारिहारिक साधु ग्रीष्म ऋतु मे जघन्य एक उपवास, मध्यम वेला, उत्कृष्ट तेला तप करते हैं। शीतकाल मे 'जघन्य वेला, मध्यम तेला और उत्कृष्टं चौला तप करते है। , वर्षा काल में जघन्य तेला, मध्यम चौला और उत्कृष्ट पचौला तप करते। है। छ मास पूर्ण होने के अनन्तर ही पारिहारिक आनुपारिहारिक बन जाते है और आनुपारिहारिक पारिहारिक बन जाते हैं। बारह मास बीत जाने पर कल्पस्थित गुरु पारिहारिक बन जाता १३०] ;
[[योग एक चिन्तन