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है। किसी को मारना तो दूर रहा पीडा, पहुचाना भी हिसा ही है। दोनो क्रियायो से दूर रहना यह निषेध-प्रधान अहिंसा है।
किसी की सेवा करना, रक्षा करना एव उसे सकटो से बचाना विधि-प्रधान अहिंसा है। निषेध-प्रधान अहिंसा, ही महावत है। विधि-प्रधान अहिंसा तो कुछ मर्यादामो मे बंध कर चलना मात्र है।
वस्तुत देखा जाए तो अहिंसा कायदे-कानूनो का धर्म नही - है, अहिंसा दुर्बलो का मार्ग नहीं है, अहिंसा कायरो का पत्थ नही है, अहिंसा कोई बातो की सिद्धि नही है और अहिंसा किसी सम्प्रदायविशेष की अपनी निधि भी नही है। अहिंसा को समझने और उसका पालन करने के लिये उदार चरित्र और ज्ञान की आवश्यकता होती है। प्राचार और विचार मे, चारित्र और बल में, कर्तव्य और मनोभावना मे, साधक को अहिंसा का सर्वतोभावेन पालन करना होता है। अपने भीतर निरीक्षण करने पर ही अहिंसा का पालन दृढ मन से हो सकता है । अहिंसा को आराधना के लिये मन में मैत्री, प्रेम, सहानुभूति, क्षमा, सहिष्णुता का होना अनिवार्य है। इनके विना अहिंसा का पालन नहीं हो सकता, क्योकि जो अपने प्रति कठोर होता है वही दूसरे के प्रति उदार हो सकता है। जब तक अहिंसक के मन मे दूसरे की फजीहत से गुदगुदी होती है, अ तक यही समझा जाता है कि उसमे अभी दुष्टता बाकी है। अंहिसा भगवती की आराधना करनेवा साधक के लिये सब से - पहले कपायो की उपशांन्ति आवश्यक है, क्योकि कषायवृत्ति का और अहिंसावृत्ति का परस्पर विरोध है।
जीवन पर्यन्त त्रस और स्थावर सभी जीवो की हिसा से सर्वथा निवृत्त होना, न स्वय मन से हिंसा करना, न वाणी से योग एक चिन्तन
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