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हट जाने पर परिग्रह, परिग्रह नही रह जाता या परिग्रहरूप जड. चेतन से Âलग होने पर राग-द्रेप मोह रूप ईवन के प्रभाव मे लालसा की ग्राम स्वत ही शान्त होने लगती है ।
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परिग्रह महाव्रत की भी पाच भावना है— उनमे से किसी एक में भी ढोल आने पर परिग्रह की भावना स्वत. ही उभर आती है । पाचो भावनाएं सुदृढ हो तो ग्रपरिग्रह महाव्रत सुरक्षित रहता है । वे भावनाए निम्न लिखित है
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१. श्रोत्रेन्द्रिय-रागोपति - कानो के तीन विषय है— जीव शब्द, अजीव शब्द और मिश्र शब्द । इन्द्रियो और मन के अनुकूल शब्दो पर या शब्दो के साधनों पर राग न रखना और प्रतिकूल, शब्द और शब्द के साधनों पर द्वेष न करना, अपरिग्रह की पहली भावना है ।
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२ चक्षुरिन्द्रिय- गोपरति प्राखो का विषय है रूप | काला, पीला, नीला, लाल और सफेद, इन्ही के मेल-जोल से हज़ारो तरह के रंग बन जाते हैं । उनमे कोई इण्ट है और कोई अनिष्ट । इष्ट रूप पर राग और अनिरूप पर द्वेष न करना अपरिग्रह की दूसरी भावना है
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३. घ्राणेन्द्रिय-- रागोपरति - सूघने वाली इन्द्रिय को घ्राणेन्द्रिय कहते हैं, इसका विषय है सुगध श्रौर दुर्गन्ध । सुगन्ध' वाले पदार्थो पर आसक्ति न रखना और दुर्गन्ध वाले पदार्थों पर द्वेष न करना अपरिग्रह की तीसरी भावना है।
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४ रसनेन्द्रिय-रागोपरति- रसना वह इन्द्रिय है जिससे तीखे, कड़वे कसैले खट्टे मीठे प्रादि रसो का प्रास्वादन होता है । रसं दो तरह का होता है अनुकूल और प्रतिकूल । अनुकूल
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[ योग एक चिन्तन