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वस्तु बाढ सख्या मे स्वल्प है या बहुत, कीमत मे या परिमाण में वह अणु हो या स्थूल, सचित्त हो या अचित्त, उस पर से ममत्व को हटाना विचारो मे भी ममत्व को न आने देना, आभ्यन्तरिक अपरिग्रह है। मन, वचन और काया से किसी भी प्रकार का परिग्रह न रवय रखना न दूसरो से रखवाना और परिग्रह रखने वाले का समर्थन भी न करना अपरिग्रह-व्रती का कर्तव्य बताया गया है।
__ जैसे प्रोस की बूदो से कुप्रा नही भरता, वैसे ही लोभी और लालची का मन दुनिया की चीज़ो से नही भरता । गृहस्थो के लिए परिग्रह चाहे भूपण रूप हो, किन्तु साधुप्रो के लिए वह दूषण है। अनासक्ति की सच्ची परीक्षा-हानि, कष्ट, त्याग, अपमान के समय • या अपनो के वियोग के समय ही होती है। ममत्व और अनासक्ति के झगडे मे ससारी जोवो का ममत्व ही जीतता है । इससे दुनियादारी और अभिमान खुश हो जाते है, किन्तु मोहान्ध व्यक्ति अपने को गड्ढे में गिरा हुआ पाता है, और जब साधक की अनासक्ति विजयी होती है, तव आत्मा को प्रफुल्लता, एव आध्यात्मिक मस्ती बढती है। भारतीय सस्कृति मे,सदा त्याग, आत्म-विजय, प्रात्मानुशासन और प्रेम की अविच्छिन्न धाराए वही है, इस सस्कृति के उपासको. ने जब भोग मे सुख नहीं देखा, तब त्याग के मार्ग को अपनाया, जव दूसरे जोते नही गए तव अपनी ओर ध्यान खीचा, उनमे प्रात्म-विजय की सूझ-बूझ जागो, जव हकूमत बुराइयां नहीं मिटा सकी, तव आत्मानुशासन का ध्यान अाया, जब आग से प्राग अर्थात् दुप से द्वेष शात नही हुआ, तब प्रम: से द्वेष की आग बुझाने की रीति अपनाई।
परिग्रह राग-द्वेष का मूल कारण है । राग-द्वेष और मोह के योग एक चिन्तन
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