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मे आहार पानी ग्रहण करे, प्रकाश वाले स्थान में देखकर भोजन करे, विना देखे आहारादि ग्रहण करने वाला या उसका सेवन करनेवाला साधक प्राणियो की हिसा से बच नहीं सकता है।
जो साधक इन पाच भावनामो से भावित है वही इस महाव्रत का रक्षक एव पालक हैं। २. मृषावाद-विरमण महाव्रत___-अपने लिये, पर के लिये या दोनो के लिये किसी भी स्थिति मे क्रोध-से, लोभ से, भय एव हंसी-मजाक मे मन-वाणी और काय से स्वय न झूठ बोलना, न दूसरो से झूठ वुलवाना और, झूठ बोलने वाले का समर्थन भी न करना, मन से सत्य सोचना, वाणी से सत्य बोलना और काय से सव के साथ सद् व्यवहार करना यह है उच्च साधक का दूसरा महाव्रत। मौन रखना, विकथाओ से बचना भी इस महाव्रत के अग हैं। यदि साधक को झूठ से बचना है तो पहले उसे अत्युक्ति से वचना आवश्यक है। शास्त्र, कला और आध्यात्मिक सौदर्य ये सब सत्य की ओर ले जाने वाली सीढिया हैं। सत्य उसी के हृदय मे उदित होता है, जिसका जीवन परम सात्विक हो, जो रागद्वेप से रहित हो। ज्यो-ज्यो साँधकं सत्य की ओर बढ़ता है, त्यो-त्यो दूर की बातें उसे प्रा यक्ष दीखने लगती है। सत्य स्वयं भगवान है, यदि किसी ने भगवान के दर्शन करते हो तो वह सत्य के दर्शन करले; उसे भगवान के दर्शन स्वत ही हो जाएगे।
असत्य नंगेटिव है, जब कि सत्य पाजिटिव है। सत्य और असत्यं दोनो ही अनन्त हैं। असत्य से जव साधक पूर्णतया निवृत्त हो जाता है त निश्चय ही 'उसे अखण्ड सत्य के दर्शन होने योग . एक चिन्तन]
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