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हिंसा करना, न काय से किसी की हिंसा करना, दूसरो से भी मन, वाणी और काय से हिसा न-कराना, हिंसा करनेवाले का मनवाणी-काय से समर्थन भी न करना ही अहिंसा की पूर्ण पाराधना है । इस महाबत की पाच भावनाए हैं, जैसे कि
१. ईर्यासमिति-भावना-साधू या साध्वी को चाहिए कि चलते समय, वैठते समय, सदैव ईर्यासमिति के पालन का ध्यान रले ईर्यासमिति के बिना जीव-हिंसा से बचना असम्भव है।
२. मनोगुप्ति-मयम-गील अप्रमत्त साधु अपने मन को शुभे प्रवृत्तियों में हो लगाए। जो साधु मनोगुप्ति पर ध्यान नहीं देंता वह निश्चय ही प्राणियों की हिंसा करता है। काय-गुप्ति होते हुए भी मन की दुष्टं प्रवृनि म-बध का कारण बन जाती है। "मन एवं मनुष्याणां कारणं बंध-मोक्षयो-निश्चय ही वध और मोने का कारण मन ही है, अत मन पर नियंत्रण रखना ग्रावश्यक है।
३. वचन-गुप्ति-अहिंसा को पापो में प्रवृत्त करनेवाली एव दूसरों को कष्ट देनेवाली ऐसी भापा कभी नहीं बोलनी चाहिये। जिससे किसी प्राणी की हिंसा हो, उसे कष्ट हो, क्योंकि सावध भाषा मे प्रवृत्ति करने वाले से प्राणियो की हिंसा का होना अनिवार्य है।
४. पादान भण्डमान-निक्षेपणा-समिति-वस्त्र पात्र आदि-: किसी भी उपकरण को अयतना से लेने और रखने से प्राणियो की हिंसा का होना सभव है, अत. किसी भी वस्तु को देखकर, झाड़ कर, साफ कर यतनापूर्वक उसे ग्रहण करे और रखे, तभी इस महाव्रत की रक्षा हो सकती है। .
. ५. पालोकित-पान-भोज़त-साधु, खुले मुह वाले पात्र११४.]
[ योग । एक चिन्तन