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जीवन मे यदि एक भी दोप प्रविष्ट हो जाता है तो जीवन-यान का साधना-पथ पर अग्रसर होना कठिन हो जाता है।
दोप अनेक तरह के होते हैं, किन्तु उनमे दो तरह के दोष मुख्य हैं जैसे कि व्यावहारिक और नैश्चयिक । व्यावहारिक दोप भी सैकडो ही नही, हजारो तरह के होते हैं, उनमे से भी कोई दोष सामान्य और कोई विशेष होता है। व्यावहारिक दोष व्यावहारिक क्षेत्र मे समुन्नति एव सफलता नही प्राप्त करने देते और नैश्चयिक दोप आध्यात्मिक साधना मे साधक को अग्रसर नही होने देते।।
अपने मे रहे हुए दोषो का जान मनुष्य को स्वत भी होता है, किसी अनुभवी एव साधना-सम्पन्न महापुरुषो द्वारा भी दोषो का ज्ञान कराया जाता है और शास्त्रो के अध्ययन से भी अपनी अज्ञता एव दोषो का ज्ञान हो जाता है । जैसे मकान मे घुसे हुए एव इधरउधर छिपे हुए चोरो को कोई समर्थ व्यक्ति एक-एक को खोज-खोज कर पकड़ता है और बाहिर निकाल देता है। इसी प्रकार साधक भी अपने जीवन मे छिपे हुए दोपो को भीतर नही रहने देता । जैसे दान्तो के अन्तराल मे फसे हुए तिनके आदि को जिह्वा निकाल कर ही दम लेती है। जब तक वह न निकल जाए, तब तक उसे चैन नही पड़ता, वह बार-बार उसी स्थान का स्पर्श करती है। वैसे ही अपने द्वारा कृत दोपो को निकाल कर ही साधक शान्ति का अनुभव कर सकता है । साधक को यह ध्यान रखना आवश्यक है कि दोष देखना हो तो अपना देखो, जिससे दोप दूर करने की प्रवृत्ति पैदा हो और' अहकार मिट कर जीवन मे नम्रता का उदय हो और यदि गुण देखने हो तो दूसरो के देखो, जिस से गुणग्राहकता की वृत्ति जागृत हो सके। दोषो के ह्रास से गुणो का विकास “१०४]
- [ योग . एक चिन्तन