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होता है। रगड के विना जैसे रत्नो पर पालिश नही होतो, इसी प्रकार कठिनाइयो के बिना मानव पूर्ण नही हो पाता और दृढ साधना के विना जीवन मे से दोप नहीं निकलने पाते।
दुनिया मे सव से कठिन काम अपना सुधार है और सबसे आसान काम दूसरो की पालोचना एव नुक्ताचीनी है । पाप एव दोपो की पहचान ही मुक्ति-मार्ग का प्रथम कदम है। मानव-रोगो के भय से खाना तो वन्द कर देता है किन्तु दण्ड और मरण के भय से वह पाप एव बुराई बन्द नहीं करता । मानव की यही बड़ी कमजोरी है । जो साधक सच्ची निवृत्ति चाहता है, उसे चाहिए कि वह तमाम पापो, दोपो और उल्टी समझ को झोड दे। कोई भी दोष छोटा नहीं है, घड़ी की मशीन में कोई भी पुर्जा छोटा नही होता। एक दोप दूसरे दोप के प्रवेश के लिये इन्द्रिय रूपी द्वार खोल देता है। मनुष्य से दोप या भूल हो जाना स्वाभाविक है। जो दोष-सेवन हो जाने से दुखी होता है, वह साधु है और जो उस पर अभिमान करता है वह शैतान है । यदि कोई व्यक्ति किसी दोष को दो-चार वार कर लेता है तो फिर उसे वह अपराध नही प्रतीत होता । वह मानसिक भाव जो मिथ्याजान से उत्पन्न होता है और जिसकी प्रेरणा से मनुष्य बुरे कामो में प्रवृत्त होता है वह दोप है। दोष एक ही नहीं अनेको हैं। चाहे दोप कैसा भी हो, उससे प्रात्मा का पतन होता है साधक विराधक बन जाता है । दोषो का उपसहार जीवन के उत्थान का एव आराधक बनने का मार्ग है। ज्यो-ज्यो रागद्वेप की प्रवृत्ति कम होती जाएगी और निवृत्ति बढती 'जाएगी, त्यो त्यो समत्वयोग के साथ-साथ सभी गुणो का विकास स्वय वृद्धि को प्राप्त होता जाएगा। अत साधक को आत्म-दोपो का उपसंहार करने के लिये सर्वदा यत्नशील रहना चाहिये। . योग - एक चिन्तन ]
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