________________
२३. मूलगुण-प्रत्याख्यान
प्रत्याख्यान का अर्थ है परित्याग करने की दृढ प्रतिज्ञा अर्थात् निन्दनीय एव सर्व सावध कर्मो एवं मोहजनक पदार्थों से, निवृत्ति। ज्ञान पूर्वक दृढ-प्रतिज्ञ- होकर किया हुआ प्रत्याख्यान ही महत्त्व पूर्ण होता है । चित्र तैयार करने से पहले जैसे चित्रकार को उसके स्वरूप का, उसके साधनो का उन साधनो के उपयोग का विशिष्ट ज्ञान होता है और इसी जान, के अनुसार-जब-वह क्रिया भी करता है, तभी वह चित्र तैयार कर पाता है। वैसे ही प्राध्यात्मिक क्षेत्र में भी मुमुक्षु के लिए-आत्मा, वध, और मोक्ष के उपायो का तथा उनके परिहार एव उपादेयता का ज्ञान होना श्रावश्यक है। शास्त्रकार कहते है "ज्ञानक्रियाभ्या मोक्ष ' ज्ञान
और क्रिया का सतुलित प्रयोग ही मोक्षमार्ग है। जिन पापो के त्याग से प्रात्म-गुणों का विकास हो, जीवन अलौकिक एवं पादर्ग वन जाए जिन साधनो से मोह-कर्म पर विजय प्राप्त हो जाए, आत्मसमाधि जाग उठे, परमानन्द की प्राप्ति हो सके,उसे "मूलगुण प्रत्याख्यान" कहते है ।
. . . चारित्रं-मोहनोय · कर्म के उपशम, क्षयोपशम अथवा सर्वथा क्षय होने से इस गुण की उपलब्धि होती है। चारित्र एव सयम को, "मूलगुण-प्रत्याख्यान" कहा जाता है । यात्म स्वरूप में ११०]
[ योग एक चिन्तन