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है। भाव एक स्फूरणा है, विचार एक योजना है। भाव में प्रेरणा, गुण मे आकर्पण और वल मे दव-दवा होता है। बल मे रागद्वप गुण मे स्नेह और भाव मे अानन्द एवं गान्ति है।
भाव जव साकार एव क्रियात्मक बन जाता है, तब वह गुण कहलाता है । गुण जव दूसरो को प्रभावित करता है, तब वह वल कहलाता है। भाव हृदय को स्पर्श करता है, गुण बुद्धि को प्रमुदित करता है। वल शरीर को वशीभूत करता है, भाव अपने आप बढता है। गुण साधना से प्राप्त होता है और वल प्रायोजन एव अभ्यास से प्राप्त होता है। गुण तप से, कषायो की मदता से, शास्त्रो के स्वाध्याय से, अनेकान्तवाद के प्राश्रयण से और सतत साधना से विकसित होता है। सुविधि भी अपने आप मे महत्त्व पूर्ण गुण है। जब वह ससीम से असीम बन जाता है, तब वह प्रात्मा को निश्चय ही परमात्मा बना देता है। परमात्म पद को प्राप्त करना ही प्रात्मा का लक्ष्य-बिन्दु है ।
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[ योग • एक चिन्तन