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मुर्गी अण्डा आदि एव जलचर, स्थलचर पक्षी आदि जीवो मे आत्मा नहीं है, केवल प्राण ही हैं, इसलिए इनके खाने में कोई दोष एव पाप नही, ऐसा समझना मिथ्यात्व है। अजीव को जीव समझना, जैसे शरीर, इन्द्रिय और मन ये अपने अस्तित्व की दृष्टि से जड है, इनको हो प्रात्मा समझना मिथ्यात्व है। धर्म को अधर्म समझना, जैसे सत्य अहिंमा त्याग तप, गान्ति ब्रह्मचर्य क्षमा, आर्जव आदि धर्मो को अधर्म मानना मिथ्यात्व है। अधर्म को धर्म मानना हिंसा, झूठ, चोरी, आदि पापो मे प्रासक्त रहना, मद्य-पान करना जुना खेलना, मांस खाना भोगविलास को धर्म समझना मिथ्यात्व है। जिनको कनक और कामिनी अपनी ओर खीच नहीं सकते, सासारिक लोगो की प्रगसाए प्रसन्न नहीं कर सक्ती, जो ज़र-जोरू और जमीन के त्यागी हैं. ऐसे साधुनो को भी साधु न समझना मिथ्यात्व है । जो कनक-कामिनी के दास बने हए है, जिनको सासारिक लोगो से प्रशसा एव प्रतिष्ठा पाने की दिन रात इच्छा बनी रहती है, ऐसे साधु वेषधारियो को साधु समझना मिथ्यात्व है । ससार के मार्ग को मोक्ष का मार्ग समझनामिथ्यात्व है । मोक्षमार्ग को ससार का मार्ग समझना मिथ्यात्व है। कर्मरहित को कर्मसहित समझना, जैसे परमात्मा राग द्वेष आदि विकारो से रहित है, फिर भी यह समझना कि भगवान अपने भक्तो की रक्षा के लिए दैत्यो का नाश करते हैं, अमुक स्त्री की तपस्या से प्रसन्न होकर उसके पति वनते हैं, यह मिथ्यात्व है। कर्म-सहित को कर्म-रहित मानना, भक्तो की रक्षा और शत्रुओ का नाश, यह राग-द्वेप के बिना हो नहीं सकता और रागद्वेप कर्म सम्बन्ध के विना हो नहीं सकते, फिर भी उन्हे कर्म-रहित मानना, यह समझना कि वे सब कुछ करते हुए भी अलिप्त है । इस प्रकार ९०]
[ योग . एक चिन्तन