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की धारणाए मिथ्यात्व के अन्तर्गत हो जाती है।
अथवा मिथ्यात्व पाच प्रकार का होता है, जैसे कि तत्त्व की परीक्षा किए बिना ही किसी एक सिद्धान्त का पक्ष करके पक्ष का खण्डन करना आभिग्रहिक मिथ्यात्व है । किसी तत्व की गुणदोष की परीक्षा किए बिना ही सर्व पक्षो को बराबर समझना, सत्य और असत्य को बरावर समझना, अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है । अपने पक्ष को असत्य जानकर भी उसकी स्थापना करने के लिए प्राग्रह करना- पाभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। वीतराग देव, जिनवाणी, गुरु निर्ग्रन्थ और केवलि-भाषित धर्म इनमे तथा नव तत्त्वो के प्रति सदेहशील बने रहना साशयिक मिथ्यात्व है। मोह की प्रगाढतम अवस्था मे रहना, सुविचार, या विशेषज्ञान के अभाव में रहना अनाभोग मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व अभव्यो की अपेक्षा अनादि अनन्त है, भव्यो की अपेक्षा अनादि सान्त है और प्रतिपाती की अपेक्षा सादि सान्त है। मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन सबसे बडा आश्रव है.।
सम्यग्दर्शन-सवर वह कहलाता है, जिसके उत्पन्न होते ही मिथ्यादर्शन रूप प्राश्रव स्वयं रुक जए। ' सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का होता है श्रीपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ।
मिथ्यात्व और उसकी सहचारिणी सभी प्रकृतियो का जव पूर्णतया उपशमन हो जाता है, तब उनमे से किसी का विपाकोदय तो क्या, प्रदेशोदय भी नही होता-। श्रात्मा की वह शुद्ध अवस्था ही औपशमिक सम्यग्दर्शन है । जब मिथ्यात्व और उसकी सहचारिणी प्रकृतियो मे से किन्ही का उपशंम एव योग . एक चिन्तन ]
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