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और दुख को मधुर बना देता है । भूलो से प्रेम और बुरो को क्षमा करना ये दोनो तत्त्व चरित्र-निर्माण मे परम सहायक हैं ।
सुपात्रदान, परोपकार, सेवा, सहयोग, मन- संयम, वचन
संयम और काय सयम इत्यादि सभी शुभ क्रियाए पावन अनुष्ठान
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हैं । विवेक- पूर्वक कषायो से निवृत्त होकर शुभ, अनुष्ठानो मे प्रवृत्ति और सभी अशुभ क्रियाओं से निवृत्ति हो सुविधि है । जैसे
श्रग्नि, पानी और विद्युत इन मे किसी को सुखी या दुखी करने
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की इच्छा नही है, तो भी उनमे यह शक्ति है कि सुविधि से काम लेनेवाले को सुखी और प्रविधि से कार्म लेने वाले को दुखी होना
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ही पडता है | वैसे ही भगवान वीतरागी है, उनकी आज्ञा का
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सेवन सुविधि से किया जाए तो सुख और अविधि से सेवन करने वाले को दुख प्राप्त होता है । यह भगवान का या धर्म का ..नही अपितु व्यक्ति के अपने ही गुण-दोष का परिणाम है । काम, क्रोध, मान, लोभ, मोह और अज्ञान आदि विकार आत्मा के भीतरी शत्रु हैं, जिस उपाय से इन शत्रुम्रो को जीता जा सकता है, उस उपाय को ही जिन धर्म कहते है । उस उपाय को ही दूसरे
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शब्दो मे सुविधि कहा जाता है । उस उपाय को जिस ज्ञान के द्वारा जाना जाता है वहीं सम्यग्ज्ञान है । विशाल आपत्तियों को, भयकर सकटो को, सभी तरह के भयो को, प्रतिकूल बधो को तथा पराधीनता जैसी अपमानता को केवल ज्ञानाग्नि ही भस्म कर कर सकती है ।
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सुविधि पूर्वक भगवान की भक्ति करने से जैसे कल्याण होता है वैसे ही पुण्य अनुष्ठान करने से भी आत्मा का कल्याण होता है । यह भी कर्मों से निलिप्त रहने की एक रीति है । सुविधि भी अन्तर्बल है । इसी मे अनासक्ति भाव का अन्तर्भाव हो जाता
योग : एक चिन्तन ]
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