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जाता है, किन्तु किसी का भी तिरस्कार करना श्रेयस्कर नही, होता।
६ पवध च न कुबह-सुविनीत क्रोध को मन मे स्थिर नही रहने देता, अधिक समय तक क्रोध करते रहना अविनीतता है। जैसे पानी मे खीची हुई लकीर अधिक देर तक नही रहती वैसे ही क्रोध आये और तत्काल शान्त हो जाए यही विनीतता के पथिक के लिए प्रशस्त मार्ग है।।
७ मेतिज्जमाणो भयई-सुविनीत मित्रता रखने वाले के प्रति कृतज्ञ रहता है । कृतज्ञता नही रखने से साधक की उन्नति एव गुणवृद्धि क्षण-क्षण मे हीन होती जाती है।
८ सुयं लळून मज्जई - सुविनीत श्रुतज्ञान प्राप्त करने पर भी मद नही करता। धर्म-साधना मे माया करना और विद्वत्ता प्राप्त करके अहकार करना अजीर्ण है। श्रुतमान अहकार की पुष्टि के लिए नही, नम्रता के विकास के लिये होता है ।
६ न य पाव परिक्खेवी जो भूल या स्खलना होने पर किसी का अपमान नहीं करता, अथवा किसी पर झूठा कलक नहीं चढाता वह सुविनीत है।
१० न य मित्तेसु कुप्पइ-सुविनीत कभी भी मित्रो पर क्रोध नहीं करता। हितशिक्षक, ज्ञानदाता, गुरु, प्राचार्य आदि सव मित्र हैं, वह उनके प्रति कभी भी रोप प्रकट नही करता ।
११. अप्पियस्सा वि मित्तस्स रहे कल्लाण भासई-सुविनीत एकान्त मे भी अप्रिय मित्र की प्रशसा ही करता है, निन्दा नहीं करता। बुराई करने वाले व्यक्ति द्वारा पहले किए गए किसी उपकार का स्मरण करके उसके परोक्ष मे भी उसकी प्रशसा ही करता है।
योग एक चिन्त ]
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