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१७. संवेग
संवेग शब्द जैन आगमों का पारिभाषिक शब्द है। प्रत्येक शब्द मे कोई न कोई अपनी विशेषता होती है और अपना विशेष अर्थवोध भी। स पूर्वक 'प्रोविजी भयचलनयो' धातु से सवेग शब्द की निष्पति होती है। लोक-व्यवहार में मन प्रादि कारणो से होनेवाली घबराहट तथा शीघ्र गति को सवेग कहते है, किन्तु जैन आगमो मे मंवेग शब्द का अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है, यह धर्मसाधन का एक मुख्य अंग है। इसके बिना साधक की साधना अपूर्ण ही रहती है।
सम्यग्दृष्टि के पांच लक्षण हैं. जिन लक्षणो से सम्यग्दृष्टि की पहचान की जाती है.उनमे दूसरा लक्षण सवेग है। उतराध्ययन सूत्र के उनत्नीसवे अध्ययन मे तिहत्तर प्रश्न है और तिहत्तर ही उत्तर हैं। उनमे सब से पहला प्रश्न सवेग सम्बन्धी है और वहां सवेग का जो फल बताया गया है, उसे जान लेने पर सवेग का मूल्याकन जानियो को दृष्टि मे बढ जाता है। ..
लक्ष्य-प्राप्ति मे बाधक तत्वो से भय और लक्ष्य बिन्दु की ओर तीब्र एव सतुलित वेग को ही सवेग कहा जाता है। कर्मों के वधनो से मुक्त होने की अभिलापा ही सवेग है। जो मनोभाव सर्वोत्तम शक्तिशाली आत्मा को वेग के साथ साधना,के लक्ष्य की ओर अभिमुख करता है वह सवेग़ है। जव मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न होती है तब धर्म में रुचि उत्पन्न हो जाती है । जव धर्म मे रुचि उत्पन्न हो जाती है तब मोक्ष की अभिलाषा तीव्रतम हो उठती है। इस प्रकार सवेग, और धर्म-श्रद्धा मे परस्पर कार्य-कारण ८२.]
[ योग एक चिन्तन