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(क) प्रभासवत्तिय-गुणी जनो के पास रहना, सुमगति मे रहना या शास्त्र अभ्यास मे दत्तचित्त रहना।
(ख) परच्छन्दाणवत्तियं-बड़ो की इच्छानुसार कार्य करना।
(ग) कज्जहेउ - अपने ज्ञानादि कार्यो के लिए उन्हे पाहा. रादि ला कर देना एव साता पहुंचाना।
(घ) कयपडिकिरिया-अपने ऊपर किए हुए उपकारो का बदला चुकाना अथवा आहारादि के द्वारा गुरु की सेवा करने से गुरु प्रसन्न होगे और उसके बदले मे वे मुझे ज्ञान सिखाएगे ऐसा सोचकर उनकी विनय करना।
(ड) अत्तगवेसणया-ग्लान, रोगी, असमर्थ एव दीन-हीन की सार, सम्भाल करना।
(च) देसकालण्णया-देश और काल के अनुसार कार्य करना।
(छ) सवत्थेसु-अपडिलोमया-छोटे-बड़े सभी कार्यो मे वड़ो को आज्ञा के अनुकूल प्रवृत्ति करना, इन्कार मे नही, इकरार मे उत्तर देना, उनकी इच्छा के प्रतिकूल कभी कोई कार्य न करना लोकोपचार विनय है। इसकी आराधना साधु एवं श्रावक सभी को करनी चाहिए।'
ज्ञान विनय से लेकर लोकोपचार विनय तक विनय के इन सात भेदो में सभी धर्मानुष्ठानो का अन्तर्भाव हो जाता है। धर्म का सर्वस्व ही विनय है। इसीलिये कहा जाता है "विणयमूलो धम्मो"-विनयरूप मूल पर ही धर्म रूप वृक्ष विकसित होता है।
विनयवाद भी भारतीय सम्प्रदायविशेप का एक सिद्धान्त है। १ भगवतीसूत्र, २५वा शतक । स्यानाङ्ग सून ७वा स्थान, प्रोपपातिक सून्न । ७४]
[ योग एक चिन्तन