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सान्निध्य का परित्याग नही करता। अभिप्राय यह कि जिस विनय के पीछे सेवा-भाव छिपा हो वही शुश्रूषा विनय है।
दर्शन विनय का दूसरा भेद अनाशातना-विनय है। विपरीत वर्तन, असद्व्यवहार, अपमान, तिरस्कार, अवहेलना, अश्रद्धा पाशातना के ही पर्यायवाची शब्द हैं। आशातना न करना ही अनाशातना-विनय है। अरिहन्त भगवान, केवलि-भाषित धर्म, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, सघ, सार्मिक, क्रियावान्, मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी मन पर्याय-ज्ञानी और केवलज्ञानी इन पन्द्रह की आशातना न करना, इनकी भक्ति और वर्णवाद करना अनाशातना-विनय है। इन तीन कार्यो के करने से इसके पन्द्रह भेद हो जाते हैं । हाथ जोडना आदि विनय के वाह्य प्राचार को भक्ति कहते हैं और हृदय मे श्रद्धा और प्रीति रखना बहुमान है तथा वाणी से दूसरो के सामने गुणानुवाद करना प्रशसा करना वर्णवाद है। ३. चारित विनय
चारित्र का अर्थ है सयम, नियम, विरति या व्रत । चारित्रप्राप्ति के लिए विनय करना या चारित्रवान की विनय करना चारित्र-विनय है। ज्ञान दर्शन-पूर्वक होता है और ज्ञान-पूर्वक चारित्र की आराधना होती है। ज्ञान-पूर्वक ग्रहण किया हुआ चारित्र ही सम्यक् चारित्र हुआ करता है। अज्ञान पूर्वक ग्रहण किया हुआ आचरण चारित्र नही, वह तो चारित्राभास है।
चारित्र-विनय के पाच भेद हैं-सामायिक-चारित्र-विनय, छेदोपस्थापनीय-चारित्र-विनय, परिहार-विशुद्धि-चारित्र-विनय, सूक्ष्म-सपराय-चारित्र-विनय और यथाख्यात-चारित्र-विनय । योग : एक चिन्तन ]
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