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__ की दृष्टि से श्रेष्ठ एव महत्त्वपूर्ण है। इनका अस्तित्व सभी चारित्रो मे पाया जाता है।
रात्रि-भोजन-विरमणबत नित्य तपस्या का परिचायक है। इस तप की साधना के लिये रात्रि में जीवन भर के लिये सभी तरह के खान-पान का परित्याग, इतना ही नही रात्रि को खाने-पीने की वस्तुप्रो के पग्रह का भो त्याग, यहां तक कि रात्रि को औषधिसेवन का भी त्याग कर देना होता है। अन्य सभी महाव्रतो और रात्रिभोजन-विरमगवत मे साधक किसी प्रकार की छुट या ग्रागार नही रखता और न प्रागार रखने वाले को महावतो का पालक कहा जाता है।
मार्वभौम महाव्रतो की रक्षा समिति और गुप्ति से की जाती है। ईर्या-समिति, भाषा-समिति, एपणा-समिति, आदान-भण्डमात्रनिक्षेपणा-समिति और उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-मल-परिठावणिया-समिति- इन पांचो समितियो का सम्यक्तया पालन करने को ही समिति या सम्यक्प्रवृत्ति भी कह सकते है। जब साधक अशुभ सकल्पो से मन को, अशुभ एव अमगल वाणी से वचन को और अशुभ प्रवृत्ति से काया को नियन्त्रित करता है तब उसी को गुप्ति या सम्यनिवृत्ति कहते हैं। चारित्राचार के सभी भेद समिति एव गुप्ति मे निहित हो जाते हैं।
जिस तप से विषय, कपाय और अन्तर्मल भस्म हो जाएं, अहिंसा भगवती की सफल एव पूर्ण पाराधना हो जाए, जीवन सन्तोष से परिपूर्ण हो जाए गरीर पर मम-व भी न रहने पाए, अध्ययन और ध्यान में मन सलीन हो जाए, पूज्य जनो के प्रति विनयभक्ति, प्रीति एव सेवा की भावना जाग जाए, राग, द्वेप, मोह विल्कुल मन्द पड जाए, मान . एव प्रतिष्ठा की भूख शान्त
[योग — एक चिन्तन