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सम्यग्दर्शन साधक को चारित्र-भ्रष्टता और एकान्त मिथ्यावादियो की सगति से दूर रखता है। सम्यग्दृष्टि मोक्ष के उपायो मे, जिनवाणी मे एव अखण्ड सत्य मे नि शकित रहता है । मिथ्यात्व या मिथ्यावादो और सासारिक सुख-साधनो से वह निस्पह रहता है। वह भयकर विपतियो से घिर जाने पर भी धर्म फल के प्रति सन्देह नहीं करता। मिथ्यादृष्टियो के चमत्कार को देख कर भी उसकी चेतना मूढता से दूर रहती है। वह तीर्थङ्करो के द्वारा वताए हुए मार्ग पर चलने वालो को प्रशसा करता है । जो व्यक्ति सन्मार्ग से फिसल रहा हो उसे पुन. धर्म मे स्थिर करता है, सहधर्मी लोगो पर वात्सल्य एत्र प्रोति रखता है, मार्गानुसारी जीवो को प्रभावना के द्वारा जिन-मार्ग पर लाता है । इस प्रकार के सभी कार्य दर्शनाचार कहलाते है।
मर्व देश और सर्व काल मे विना किसी आगार या अपवाद के जिन व्रतो की ग्राराधना की जातो है, उन्हे सार्वभौम महात कहते हैं। महाव्रतो मे साधक को किसी प्रकार को छूट नही दी जाती। जिन मे छूट दी जा सकती है, वे महाव्रत नहीं, बल्कि अणुव्रत कहलाते है। महाव्रत ग्रहण करते समय साधक कोई छूट नही रखता, वह तीन योग और तीन करण से हिसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह का त्याग कर देता है, इन से पूर्णतया निवृत्त होने की प्रतिज्ञा लेता है। इतना ही नही पृथ्वी काय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय की हिंसा का तीन योगो और तीन करणो से जीवन भर के लिये त्याग कर देता है ।..
महानत एक ही नहीं प्रत्युत पाच है। कोई भी महावत न बडा है और न छोटा, सभी अपने-अपने महत्त्व और उपयोगिता
योग एक चिन्तन ]
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