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६. आदान-भाण्ड-मात्र निक्षेप-समिति-अपने अधिकार में रही हुई किसी वस्तु को उठाते और रखते हुए यतना से प्रवृत्ति करना।
१० उच्चार - प्रवण - खेल • जल्ल - मल्ल-परिष्ठापनिका समिति-जहा न कोई प्राता हो और न देखता हो, अचित्त भूमि देखकर शरीर की सब तरह की मैल को यतना से यदि त्यागा जाए तो सभी समितिया समाधि-जनक हो जाती हैं।' चतुर्विध समाधि
विनय-आराधना, श्रुत-अध्ययन, निर्दोप तप और निरतिचार प्राचार इन चार भेदो मे से यदि किसी एक भेद मे कोई सलग्न है तो उसे जिस क्षण की आराधना करते हुए अपूर्व आनन्द को अनुभूति होती है उसके लिये वही क्षण समाधि रूप हो जाता है। जिसको जिस कारण से समाधि प्राप्त हुई है उसी कारण के अनुरूप ही उस समाधि का नाम पड़ जाता है। जैसे कि विनय-समाधि श्रुत-समाधि, तप -समाधि और आचार-समाधि। समाधि कोई भी हो उससे मानसिक शान्ति एव असीम आनन्द की उपलब्धि अवश्य ही होती है। समाधि शारीरिक भान से ऊपर उठकर मन की स्थिरता है और इस मानसिक स्थिरता से आनन्द के दिव्य स्रोत अनायास ही उमडने लगते हैं, अत साधक को समाधिस्थ होकर योग-मार्ग पर अग्रसर होते रहने का प्रयास करते रहना चाहिये ।
१ स्थानाग दसवा स्थान । २. दशवकालिक सूत्र अ० ९ वा उ०४ । योग । एक चिन्तन